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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / दशम सर्ग / पृष्ठ - ५

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ए हैं वे प्रसून जो खिलकर म्लान नहीं होते हैं।
सौरभ-बीज जगत में जो सुरभित हो-हो बोते हैं।
आदर पाकर जो हैं सुरपति-शीश-मुकुट पर चढ़ते।
जो खिल-खिलकर भव-प्रमोद का पाठ सदा हैं पढ़ते॥11॥

देवपुरी उनके विकास से है विकसित हो पाती।
उनकी छटा देवबाला-तन की है छटा बढ़ाती।
वे हैं अनुरंजन-व्रत-रत रह दिवपति परम दुला।
वे हैं सुरसमूह के वल्लभ, सुरबाला के प्यारे॥12॥

आनन्दित रह स्वयं और को हैं आनन्दित करते।
भीनी-भीनी महँक सदा वे त्रिकभुवन में है भरते।
उनके द्वारा सद्भावों का व्यंजन हैं कर पाते।
वन्दित जन पर वृन्दारक हैं सदा फूल बरसाते॥13॥

जड़ी-बूटियाँ ज्योतिमयी हैं सदा जगमगाती हैं।
तेज:पुंज कलेवर द्वारा तेजस्विता जताती हैं।
पा करके विचित्र फल-दल हैं अद्भुत दृश्य दिखाती।
दिव्य लोक में कर निवास हैं अधिक दिव्यता पाती॥14॥

खिलीं अधाखिली मिलीं तनिक-सा खिलीं खेल दिखलाये।
बदल रूप ललना से लालन हुईं मन्द मुसकाये।
बन-बन कलित विकास क्रिया की कोमलतम पलिकाएँ।
कला दिखाती ही रहती हैं कलामयी कलिकाएँ॥15॥

है कल्पना कल्पपादप की कल्पलता की न्यारी।
पर उनके पाने का नन्दन-वन ही है अधिकारी।
जिसमें नहीं अलौकिकता हो, जिसमें हो न महत्ता।
क्यों है वह स्वर्गीय न जिसमें हो सुरपुर की सत्ता॥16॥

वह सदैव मुखरित रहता है खग-कुल-कलरव द्वारा।
कोमल मधुर स्वरों से बहती रहती है रस-धारा।
बहुरंगी विहंग जब उड़-उड़ स्वर्गिक गान सुनाते।
मोदमत्त बन तरु-तृण तक तब थे झूमते दिखाते॥17॥

बजती कान्त करों से वीणा सुधामयी स्वर-लहरी।
नृत्य-गान अप्सरा-वृन्द का लय-तालों पर ठहरी।
सुर-समूह का वर विहार सुरबाला की क्रीड़ाएँ।
सकल विश्व-मानस-विमोहिनी भावमयी व्रीडाएँ॥18॥

कूजित विहंग रंगीली तितली गुंजित अलि-मालाएँ।
कुंजों बीच बनी सोने की बड़ी दिव्य शालाएँ।
सुन्दर से सुन्दर विहार-थल दृश्य नितान्त मनोहर।
प्रकृति-रम्यता समय-सरसता लीलाएँ लोकोत्तर॥19॥

हो-हो स्वर्ग-विभूति-विभूषित, हो दिव्यता-निमज्जित।
हो अनुमोदनीय सुख के सब सामानों से सज्जित।
बतलाती हैं उड़ा-उड़ा के कान्त कीत्तिक के केतन।
वास्तव में सुविदित नन्दन-वन है आनन्द-निकेतन॥20॥

विबुध-वृन्द
(7)

जिसकी विजय-दुंदुभी का रव भव को कंपित करता है।
प्रकृत तेज जिसका दिगन्त के तिमिर-पुंज को हरता है।
वारिवाह जिसके निदेश से जग को जीवन देता है।
सप्त-रंग-रंजित निज धानु से जो विमुग्ध कर लेता है॥1॥

दिव्य अलौकिक बहु मणियों से मंडित मुकुट मनोहारी।
सकल मुकुटधार-शासन का है जिसे बनाता अधिकारी।
श्वेतवर्ण ऐरावत-सा मदमत्त गजेन्द्र-मंद-गामी।
सबसे ऊँचे सिंहासन का जिसे बनाता है स्वामी॥2॥

चार चक्षु है नहीं स्वयं जो है सहस्र लोचनवाला।
सारी जगती का रहस्य सब है जिसका देखाभाला।
आ यमराज सामने जिसके धर्मराज बन जाता है।
वह है सुरपति कर के पवि से जो लोकों का पाता है॥3॥

जिसकी ज्योति गगनतल में भी परमोज्ज्वल दिखलाती है।
सब भावों का सदुपयोग जिसकी शिक्षा सिखलाती है।
धूमधाम से बहती जिसकी धर्म-धुरंधरता-धारा।
है सुरपति सर्वस्व विपथ-गत सुर-समूह का धुरव तारा॥4॥

कहाँ नहीं उस सकल लोक-पालक की कला दिखाती है।
एक-एक फूलों में उसकी सुछवि छलक-सी जाती है।
एक-एक पत्तो पर उसका पता लिखा-सा मिलता है।
खुल जाता है ज्ञान-नयन जब मंद-मंद वह हिलता है॥5॥

ऐसे भेद बतानेवाली जिसकी कृपा निराली है।
जिसके कर में सकल लोक-हित-कामुकता की ताली है।
जो है त्रिकभुवन-शांति-विधाता, सुरपुर का हितकारी है।
वह है सुरगुरु जिसकी गुरुता नीति-निपुणता न्यारी है॥6॥

जिसकी तंत्री सुने विश्वहृत्तांत्री बजने लगती है।
जिसकी भावमयी स्वर-लहरी भक्ति-रंग में रँगती है।
जिसका कल आलाप श्रवण में सुधा-बिन्दु टपकाता है।
आलबाल उर लसित प्रेमतरु जिससे तरु हो पाता है॥7॥

जिसकी महिमामयी मूर्ति मन को रसमत्त बनाती है।
किसे नहीं जिसकी तदीयता तदीयता दे पाती है।
सुर-सदनों में जिसका प्रेम-प्रवाह प्रवाहित रहता है।
वह है वह आनन्द-मग्न देवर्षि जिसे जग कहता है॥8॥

रमा चंचला हों; पर अचला जिसके यहाँ दिखाती हैं।
ऋध्दि-सिध्दियाँ जिसकी सेवा कर फूली न समाती हैं।
नव निधिकयाँ निधिक के समान जिसकी निधिक में लहराती हैं।
जिसके महाकोष में अगाणित मणियाँ शोभा पाती हैं॥9॥

जो त्रिकभुवन के घन-समूह का धाता माना जाता है।
जिसकी कृपा हुए लक्षाधिकप महारंक बन पाता है।
सदा भरापूरा जिसका अक्षय भांडार कहाता है।
वह कुबेर है जिसका वैभव कूत न कोई पाता है॥10॥