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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / दशम सर्ग / पृष्ठ - ७

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स्वर्ग की कल्पना
(8)

अच्छा होता, दुख न कभी होता, सुख होता।
सब होते उत्फुल्ल, न मिलता कोई रोता।
उठती रहतीं सदा हृदय में सरस तरंगें।
कुचली जातीं नहीं किसी की कभी उमंगें॥1॥

बजते होते घर-घर में आनन्द-बधावे।
निरानन्द मिलते न धूम से करते धावे।
सदा विहँसता जन-जन-चद्रानन दिखलाता।
किसी काल में कहीं न कोई मुख कुम्हलाता॥2॥

बहती मिलती सकल मानसों में रस-धारा।
छिदता बिंधाता नहीं हृदय वेदन-शर द्वारा।
होते जगती-जीव मंजु भोगों के भोगी।
करने पर भी खोज न मिलता कोई रोगी॥3॥

होती मन की बात, तोड़ते सब नभ-ता।
बैठा मिलता कहीं नहीं कोई मन मा।
होते सब स्वच्छन्द धर्मरत पर-उपकारी।
कहीं न मिलते पाप-ताप-तापित अपकारी॥4॥

सदन-सदन में रमा रमण करती दिखलाती।
नहीं धाड़कती पेट के लिए कोई छाती।
जहाँ-तहाँ सब ओर नित बरसता हुन होता।
कहीं न कोई कभी गाँठ की पूँजी खोता॥5॥

नवयौवन से सदा लसित होते नर-नारी।
आती जरा कभी न, न जाती ऑंखें मारी।
मिले अमरता कभी नहीं मानव मर पाता।
सरस सुधा कर पान न अपना प्राण गँवाता॥6॥

नहीं किसी का जीवन-सा पारस खो जाता।
सोने का संसार न मिट्टी में मिल पाता।
सब सदनों में परम हर्ष-कोलाहल होता।
खोकर अपने रत्न न कोई रोता-धोता॥7॥

चिरजीवन कर लाभ लोक फूला न समाता।
नहीं काल विकराल किसी का हृदय कँपाता।
द्वारों चौबारों पर मिलती नौबत झड़ती।
किसी कान में कभी नहीं क्रन्दन-ध्वनि पड़ती॥8॥

दिव्य नारि-नर-वृन्द गा-बजा रीझ रिझाते।
कर-कर हास-विलास उल्लसित लसित दिखाते।
सब उद्वेजक भाव सामने सहम न आते।
सा नीरस व्यसन विषय तन परस न पाते॥9॥

हभ तरुवृन्द फलों से भ दिखाते।
पर हो-हो कंटकित न औरों को उलझाते।
फूल-फूलकर फूल फबीले बन मुसकाते।
पर रज से अंधो न रसिक भौं बन पाते॥10॥

घनरुचि तन की छटा दिखा नभ में घन आते।
सरस वारि कर दान रसा को रसा बनाते।
पर कभी न वे कर्ण-विदारी नाद सुनाते।
न तो गिराते विज्जु, न तो ओले बरसाते॥11॥

बहता रहे समीर महँकता शीतल करता।
पर ऑंधी बन रहे न नयनों में रज भरता।
लतिका से कर केलि बने जीवन-संचारी।
पेड़ न टूटे धवंस न हो फूली फुलवारी॥12॥

ऐसी ही कामना सदा मानव करते हैं।
कुछ ऐसे ही भाव भावुकों में भरते हैं।
भव का द्वन्द्व विलोक मनुज भावित होता है।
देख काल-मुख आठ-आठ ऑंसू रोता है॥13॥

इस विचार ने बुध जन को है बहुत सताया।
कैसे होगी अजर अमर मानव की काया।
क्या लोकों में लोक नहीं है ऐसा न्यारा।
जिसे मिला हो भू-उपद्रवों से छुटकारा॥14॥

देख चित्त की वृत्तिक समा है गया दिखाया।
मिला रंग में रंग, रंग है गया जमाया।
कहते हैं कुछ विबुध, पता कब गया बताया।
है सुरपुर-कल्पना किसी कल्पक की माया॥15॥

स्वर्ग की वास्तवता
(9)

नीलाम्बर में बड़े अनूठे रत्न जड़े हैं।
भव-वारिधिक में विपुल विद्युत-स्तंभ खड़े हैं।
ता हैं अद्भुत विचित्र अत्यंत निराले।
परम दिव्य आलोक निलय कौतुक तरु थाले॥1॥

यदि स्वकीय विज्ञात सौर-मंडल को ले लें।
चिन्ता-नौका को विचार-वारिधिक में खे लें।
तो होगा यह ज्ञात एक उसके ही ता।
हैं मन-वचन-अगोचर मति-अवगति से न्या॥2॥

फिर अनन्त तारक-समूह की सारी बातें।
कैसे हैं उनके दिन या कैसी हैं रातें।
क्या रहस्य हैं उनके, क्या है उनकी सत्ता।
क्या है उनका बल विवेक अधिकार महत्ता॥3॥

किसी काल में बता सकेगा कोई कैसे।
बड़े विज्ञ भी कह न सकेंगे, वे हैं ऐसे।
दिनमणि से सौगुने बड़े नभ में है ता।
जो हैं दिव दिव्यता-करों से गये सँवा॥4॥

ऐसे तारक-चय की भी है कथा सुनाई।
जिनकी किरणें अब तक हैं न धारा पर आयी।
वे हैं द्युतिसर्वस्व अलौकिक गुणगणशाली।
है उनकी विभुता अचिन्त्य, दिव्यता निराली॥5॥