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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / द्वादश सर्ग / पृष्ठ - ६

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करेंगे कलिका का न विकास।
परसकर उसका मृदुल शरीर।
करेंगे सुमन को न उत्फुल्ल।
डुलाकर मंजुल व्यजन समीर।
प्रकृति के कर अतीव सुकुमार॥11॥

कगा नहीं मनों को मुग्ध।
भगा नहीं मही में मोद।
बनाएगा न वृत्तिक को मत्त।
वस्तुओं में भर भूरि विनोद।
सरसतम ऋतुओं का संचार॥12॥

न होगी कहीं जागती ज्योति।
कहीं भी होगा नहीं प्रकाश।
भर गया होगा तम सब ओर।
हो गया होगा भव का नाश।
वाष्पमय होगा सब व्यापार॥13॥

अचिन्तित है यह गूढ़ रहस्य।
भले ही कह लें इसे परत्रा।
और क्या कहें, कहें क्या? किन्तु
भरा होगा इसमें सर्वत्र।
सकल लोकों का हाहाकार॥14॥

(10)

एक दिन आयेगा ऐसा।
घहरते आएँगे बहु घन।
लगेगा लगातार होने।
कम्पिता भू पर वज्र-पतन॥1॥

पसा हाथ न सूझेगा।
तिमिर छा जाएगा इतना।
न अनुमिति हो पाएगी, वह।
बनेगा घनीभूत कितना॥2॥

मेघ कर महाघोर गर्जन।
कगा लोकों को स्तंभित।
जल बरस मूसलधारों से।
बना वसुधातल को प्लावित॥3॥

डुबा देगा समस्त महि को।
बना सर-सरिताओं को निधिक।
महा उत्ताकल तरंगों से।
तरंगित विस्तृत हो वारिधिक॥4॥

सहस्रानन कृतान्त-व्रत ले।
विष-वमन अयुत मुखों से कर।
कगा सहलाहल महि को।
ककुभ में बहु कोलाहल भर॥5॥

भय-भ सा भुवनों के।
बहु निकट बहुधा हो-हो उदय।
दिवाकर निज प्रचंड कर से।
कगा भव को पावकमय॥6॥

जायगा खुल प्रलयंकर का।
तीसरा अति भीषण लोचन।
बनेगा जिससे ज्वालामय।
सकल लोकों का कंपित तन॥7॥

सकल ओकों को लोकों को।
सकल ब्रह्मांडों को छन-छन।
दलित मर्दित धवंसित दग्धिकत।
कगा शिव-तांडव-नर्त्तन॥8॥

पतित यों होंगे तारकचय।
उठे कर के आघातों से।
गिरा करते हैं जैसे फल।
प्रभंजन के उत्पातों से॥9॥

पदों के प्रबल प्रहारों से।
विचूर्णि होगा वसुधातल।
विताड़ित होकर, जायेगा
कचूमर पातालों का निकल॥10॥

समय-आघातों से इतना।
बिगड़ जाएगा आकर्षण।
परस्पर टकरा, तारों का।
अधिक निपतन होगा प्रतिक्षण॥11॥

बनेगा महालोम-हर्षण।
उस समय अन्तक-मुख-व्यादन।
कालिका लेलिहान जिह्ना।
काल का विकट कराल वदन॥12॥

गगन में होगा परिपूरित।
प्रचुरता से विनाश का कण।
लोक में होगा कोलाहल।
वायु में होगा भरा मरण॥13॥

नियति-दृग के सम्मुख होगा।
विश्व-हृत्कंपितकारी तम।
प्रकृति-कर से चलता होगा।
काल-जैसा विस्फोटक बम॥14॥

रहेगा छाया सन्नाटा।
समय का मुख नीरव होगा।
अवस्था होवेगी प्रकृतिस्थ।
सूक्ष्ममत अणुगत भव होगा॥15॥