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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / द्वितीय सर्ग / पृष्ठ - ५

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गीत

सब विबुध अबुध हो बैठे।
बन विवश बुध्दि है हारी।
हैं अविदित अगम अगोचर।
विभु की विभूतियाँ सारी॥1॥

    क्या नहीं ज्ञान है विभु का?
    यह ज्ञान किन्तु है कितना।
    उतना ही हो बूँदों को
    वारिधिक-विभूति का जितना॥2॥

विभु क्या? अनन्त वैभव का ।
क्या अन्त कभी मिल पाया।
इन बहु विचित्र तारों का।
किसने विभेद बतलाया॥3॥

    हैं अपरिमेय गतिवाले।
    अनुपम आलोक सहा।
    हैं केन्द्र अलौकिकता के।
    ये ज्योति-बिन्दु-से ता॥4॥

है लाख-लाख कोसों का।
इनमें से कितनों का तन।
गति में है इन्हें न पाता।
बहु प्रगतिमान मानव-मन॥5॥

    इनमें हैं कितने ऐसे।
    जो हैं सुरपुर से सुन्दर।
    जिनमें निवास करते हैं।
    सुर-वृन्द-समेत पुरन्दर॥6॥

नाना तेजस तनवाले।
रज-गात गात अधिकारी।
इनमें ही हैं मिल पाते।
बहु वायवीय वपुधारी॥7॥

    लाखों तज तेज बिखरकर।
    हैं काल-गाल में जाते।
    लाखों तम-तोम भगा के।
    बहु ज्योति-पुंज हैं पाते॥8॥

भव में ऐसी लीलाएँ।
पल-पल होती रहती हैं।
जो ऑंख खोल कानों में।
यह कान्त बात कहती हैं॥9॥

    क्यों बात अपरिमित विभु की।
    कोई परिमित बतलाये।
    जिसका है मनन न होता।
    वह क्यों मन-मध्य समाये॥10॥

यह कोई नहीं बताता।
नभ-तल में क्यों हैं छाये।
ये व्योम-यान बहु-रंगी।
किसलिए कहाँ से आये॥11॥

    नभ-तल क्या, भूतल ही की।
    सब बातें किसने जानी।
    सच यह है रज-कण की भी।
    है विपुल विचित्र कहानी॥12॥

क्यों कहें दूसरी बातें।
जो है यह गात हमारा।
क्या जान सका है कोई।
उसका रहस्य ही सारा॥13॥

    कुछ रत्न पा सके बुधजन।
    बहुधा प्रयोग कर नाना॥
    भव-ज्ञान-उदधिक तो अब भी।
    है पड़ा हुआ बे-छाना॥14॥34॥

शार्दूल-विक्रीडित

ऑंखें हैं बुध की विचित्र कितनी हैं, दूरबीनें बनी।
तो भी दिव्य कला-निकेत कितने नक्षत्र अज्ञात हैं।
कैसे जान सके मनुष्य उसको जो विश्व-सर्वस्व है।
जाने जा न सके अनन्त पथ के सारे सिता अभी॥35॥

        क्या जाना करके प्रयत्न कितने या दूरबीनें लगा।
        है दूरी कितनी, प्रसार कितना, है कान्ति कैसी कहाँ।
        ऐसे ही कुछ बाहरी विषय का है बोध विज्ञान को।
        पूरा ज्ञान कहाँ हुआ मनुज को तारों-भ व्योम का॥36॥

तारे हैं कितने सजीव, कितने निर्जीव हैं हो गये।
कैसे हैं तन रंग-रूप उनके हैं जीव जैसे जहाँ।
भू-सी है सुविभूति भूति सबमें या भिन्नता है भरी।
ये बातें बतला सके अवनि के विज्ञान-वेत्ता कहाँ॥37॥

        नाना ग्रंथ रचे गये अवनि में विज्ञान-धारा बही।
        चिन्ताशील हुए अनेक कितने विज्ञानवादी बने।
        तो भी भेद मिला न भूत-पति का, सर्वज्ञता है कहाँ।
        ज्ञाता-हीन बनी रही जगत में सर्वेश-सत्ता सदा॥38॥

पाती है वर विज्ञता विफलता मर्म्मज्ञता मूकता।
सच्चिन्ता-लहरी महाविषमता दैवज्ञता अज्ञता।
सोचे सर्व विधान सर्व-गत का, ज्ञाता बने विश्व का।
होती है बहुकुंठिता विबुधता सर्वज्ञता वंचिता॥39॥

        सीखा ज्ञान, पढ़े पुराण श्रम से, वेदज्ञता लाभ की।
        ऑंखें मूँद, लगा समाधि, समझा, की साधनाएँ सभी।
        ज्ञाता की अनुभूत बात सुन ली, विज्ञानियों में बसे।
        सौ-सौ यत्न किये, रहस्य न खुला संसार-सर्वस्व का॥40॥

दिव्या भूति अचिन्तनीय कृति की ब्रह्माण्ड-मालामयी।
तन्मात्रा-जननी ममत्व-प्रतिमा माता महत्तात्व की।
सारी सिध्दिमयी विभूति-भरिता संसार-संचालिका।
सत्ता है विभु की नितान्त गहना नाना रहस्यात्मिका॥41॥