Last modified on 11 सितम्बर 2011, at 15:03

पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / पंचदश सर्ग / पृष्ठ - ८

छोड़ हिंसा-प्रतिहिंसा-भाव।
दूर कर मानस-सकल-विकार।
नीति-पथ पर हो दृढ़ आरूढ़।
त्याग कर सारा अत्याचार॥5॥

हो दलित-मानस-लौह-निमित्त।
मंजुतम पारस तुल्य महान।
किये कंगालों का कल्याण।
अकिंचन को कर कंचन-दान॥6॥

महँक की मोहकता अवलोक।
सच्चरित-सुमनों से कर प्यारे।
प्रकृति के कान्त गले में डाल।
शील-मुक्तामणि मंजुल हार॥7॥

कर कुटिल-हृदय-हृदय को कान्त।
मन्द मानस को कर सुखकन्द।
लोक-कण्टक को विरच प्रसून।
सुजन पाता है परमानन्द॥8॥

(15)

मनन कर सादर सत्साहित्य।
सुने लोकोत्तर कविता-पाठ।
किसी वांछित कर से तत्काल।
खुले जी की चिरकालिक गाँठ॥1॥

विषय का होवे मर्मस्पर्श।
भरा हो जिसमें अनुभव-मर्म।
ललित भावों में हो तल्लीन।
किये कल-कौशलमय कवि-कर्म॥2॥

धर्म ममता शुचिता सद्भाव।
सदाशयता हों जिसके अंग।
सुने वह विबुध-कंठसंभूत।
मधुरतम पावन कथा-प्रसंग॥3॥

लोक-परलोक-दिव्य-आलोक।
लसित, जिसका हो धर्म-प्रसंग।
सर्वहित हो जिसका सर्वस्व।
किए ऐसा पुनीत सत्संग॥4॥

सरसतम स्वर-लय-ताल-समेत।
सुधारस-सिक्त कण्ठ से गीत।
लोकहित, भवरति, भाव-उपेत।
सुने रसमय स्वर्गिक संगीत॥5॥

निगम का महा अगम झंकार।
आगमों का कमनीय निनाद।
श्रवण कर बड़े प्रेम के साथ।
उपनिषद का अनुपम संवाद॥6॥

लगा आसन, समाधिक में बैठ।
कर्णगत हुए अनाहत नाद।
विलोके वांछनीय विभर्मूर्ति।
कर अलौकिक रस का आस्वाद॥7॥

हृदय में बहती है रसधार।
दिव्य बनता है मानस-द्वन्द्व।
विवृत हो जाते हैं युग नेत्र।
मनुज पाता है परमानन्द॥8॥

(16)

शार्दूल-विक्रीडित

हैं सेवा करती प्रसन्न मन से होते समुत्सन्न की।
पोंछा हैं करती प्रफुल्ल चित से आँसू व्यथाग्रस्त का।
जाती हैं वन पोत पूत रुचि से दु:खाब्धिक में मग्न का।
पूर्णानन्द-निकेतन प्रकृति की हैं सात्तिवकी वृत्तिकयाँ॥1॥

प्यासे को जल दे, विपन्न जन को आपत्तिकयों से बचा।
चिन्ताएँ कर दूर चिन्तित जनों की चिन्त्य आदर्श से।
बाधाएँ कर धवस्त व्यस्त जन की संत्रास्त को त्राकण दे।
होती है सुखिता सदा सदयता हो पूर्ण आनन्दिता॥2॥

हो राका-रजनी-समान रुचिरा हो कीत्तिक से कीत्तिकता।
हो सत्कर्म-परायणा सहृदया हो शान्ति से पूरिता।
हो सेवा-निरता उदारचरिता हो लोक-सम्मानिता।
होती हैं अभिनन्दिता सुकृतियाँ हो भूरि आनन्दिता॥3॥

पाता है वह सत्य का, पतित को है पूत देता बना।
पाते हैं उसको सचेत उसमें है पूत्तिक चैतन्य की।
है उध्दारक धर्म का सतत है सत्कर्म का संग्रही।
है आनन्द-निधन मूर्ति भव में श्रीसच्चिदानन्द की॥4॥

चाहे हो रवि सोम शुक्र अथवा हो व्योम-तारावली।
चाहे हों ललिता लता-तृण ह उत्फुल्ल वृक्षावली।
चाहे हों भव भव्य दृश्य सबकी देखे महादिव्यता।
क्यों आनन्द विभोर हो न वह जो आनन्दसर्वस्व है॥5॥

चाहे हो नभ नीलिमा-निलय या भू शस्य से श्यामला।
चाहे हो वन हरी भूमि अथवा हो वृक्ष रम्य स्थली।
पाता है वह प्रेमदेव-विभुता की व्यंजना विश्व में।
पूर्णानंद मिला कहाँ न उसको जो प्रेमसर्वस्व है॥6॥

है विज्ञात मनोज्ञ मानसर के कान्तांबुजों की कथा।
देखा है खिलना गुलाब-कुल का नीपादि का फूलना।
जानी है कुसुमावली-विकचता आम्रादि की हृष्टता।
होती है अतुला प्रफुल्ल चित की आनन्द-उत्फुल्लता॥7॥

भू पाये ऋतु-कान्त-कान्ति उतनी होती नहीं मोदिता।
होता व्योम नहीं प्रसन्न उतना पा शारदी पूर्णिमा।
देखे दिव्यतमा विभूति भव की पा वृत्तिक सर्वोत्तामा।
होती है जितनी विमुग्ध मन को आनन्द-उन्मत्ताता॥8॥