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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / पंचदश सर्ग / पृष्ठ - ९

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देती है भर भाव में सरसता कान्तोक्ति में मुग्धता।
खोती है तमतोम लोक-उर का आलोक-माला दिखा।
कानों में चित में विमुग्ध मन में है ढाल पाती सुधा।
हो दिव्या सविता-समान कविता देती महानन्द है॥9॥

लाती है चुन फूल को सुकरता से नन्दनोद्यान से।
लेती है फल कल्प से सुरगवी को है सदा दूहती।
दे-देके तम को प्रकाश, भरती है भाव में भव्यता।
हो दिव्या दिव भासमान प्रतिभा पाती महानन्द है॥10॥

पाते जीवन हैं प्रफुल्ल बनके सद्भाव-पौधे सदा।
होती है सरसा प्रवृत्तिक-लतिका हो सर्वथा सिंचिता।
है सिक्ता बनती सुचारु रुचि हो दूर्वा-समा शोभना।
प्राणी के उर-भूमिमध्य महती आनन्द-धारा बहे॥11॥

नाना प्राणिसमूह पोषणरता है मेघमाला-समा।
है वैसी रस-दायिका सकल को जैसी की देवापगा।
पाते हैं सुख-साधिकका शरद् की शान्ता सिता-सी उसे।
हो जाती है मति है महान-हृदया आनन्दमग्ना बने॥12॥

झाँकी है उसकी कहाँ न, झुकके औ' झाँकके देख लो।
है होती रहती दिशा मुखरिता र्सत्कीत्तिक-आलाप से।
है नाचा करती विभूति विभु की द्रष्टा-दृगों में सदा।
है आनन्द निमग्नभूत जन को आनन्दमग्ना मही॥13॥

प्यारा है जितना स्वदेश उतना है प्राण प्यारा नहीं।
प्यारी है उतनी न कीत्तिक जितनी उध्दार की कामना।
उत्सर्गीकृत मातृभूमि पर जो सन्तान है, धान्य है।
पाता है वह महानन्द बनता जो त्यागसर्वस्व है॥14॥

जो है मूर्ति विवेक की, प्रगति है जो ज्ञान-विज्ञान की।
जो है सर्वजनोपकार-निरता प्रज्ञामयी मुक्तिदा।
जो है प्रेमपरायणा, मनुजतासर्वस्व, सत्यप्रिया।
है विद्या वह महानन्द-जननी, शुध्दा, परासंज्ञका॥15॥