भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / पंचदश सर्ग / पृष्ठ - ७

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

(12)

परमानन्द

सत्य ही है जिसका सर्वस्व।
धर्ममय है जिसका संसार।
ज्ञानगत है जिसका विज्ञान।
रुचिरतम है जिसका आचार॥1॥

जिसे सच्चा है तत्तव-विवेक।
शुध्द है जिसका सर्व विचार।
लोकप्रिय है जिसका सत्कर्म।
प्रेम का जो है पारावार॥2॥

भूतहित से हो-हो अभिभूत।
भूतिमय है जिसकी भवभक्ति।
जिसे है करती सदा विमुग्ध।
मनुजता की महती अनुरक्ति॥3॥

जो समझ पाता है यह मर्म।
सत्य-प्रेमी हैं सब मत पंथ।
एक है सार्वभौम सिध्दान्त।
मान्य हैं सर्व धर्म के ग्रंथ॥4॥

देश को कहते हुए स्वदेश।
जिसे है सब देशों से प्यारे।
सगे हैं जिसके मानव मात्रा।
सदन है जिसका सब संसार॥5॥

ललित लौकिकता में अवलोक।
अलौकिकता की व्यापक पूत्तिक।
मानता है जो हो-हो मुग्ध।
विश्व को विश्वात्मा की मुर्त्ति॥6॥

भरी है भव में जो सर्वत्र।
ज्ञान-अर्जन की सहज विभूति।
देख उसको जिसकी वर दृष्टि।
लाभ करती है प्रिय अनुभूति॥7॥

जो कलुष का करता है त्याग।
सताता जिसे नहीं है द्वन्द्व॥
जिसे उद्बोधा-मर्म है ज्ञात।
वही पाता है परमानन्द॥8॥

(13)

दिव-विभा की विभूतियों में जो।
है सदा उस दिवेन्द्र को पाता।
जिस किरीट-किरीट-मणियों का।
एक मणि है द्युमणि कहा जाता॥1॥

देखता है विमुग्ध हो-हो जो।
व्योम के दिव्यतम कतारों को।
विभु महाअब्धिक-अंक में विलसे।
बुद्बुदोपम अनन्त तारों को॥2॥

दृष्टि में है बसी हुई जिसकी।
लालिमा उस ललामतामय की।
लोक की रंजिनी ऊषा जिससे।
पा सकी सिध्दियाँ स्वआलय की॥3॥

है प्रभावित हुआ हृदय जिसका।
उस प्रभावान की प्रभा द्वारा।
पा रही है विभूतियाँ जिससे।
भा-भरी व्योम-सुरसरी-धारा॥4॥

हैं सके देख दिव्य दृग जिसके।
वह महत्ता महान सत्ता की।
प्रीतिमय हो प्रसादिका जो है।
सृष्टि के एक-एक पत्ता की॥5॥

चित्त है यह बता रहा जिसका।
लोकपति की विचित्र लीला है।
है धात्री
उडुगणागार व्योम नीला है॥6॥

है यही सोचती है सुमति जिसकी।
मूल में है महान मौलिकता।
कल्पना है अकल्पना बनती।
लोक में है भरी अलौकिकता॥7॥

ब्रह्म की उस ललित कला को जो।
है लसी लोक-मध्य बन सुखकन्द।
देख पाया प्रफुल्ल हो जिसने।
क्यों मिलेगा उसे न परमानन्द॥8॥

(14)

निरवलम्बों का हो अवलम्ब।
व्यथाएँ कर व्यथितों की दूर।
तिमिर-परिपूरित चित्त-निमित्त।
सदा बन-बन सहस्रकर सूर॥1॥

वैरियों से कर कभी न वैर।
अहित-हित-रत रह-रह सब काल।
विलोके विपुल विभुक्षित-वृन्द।
समर्पण कर व्यंजन का थाल॥2॥

सदयता सहानुभूति-समेत।
दुर्जनों को दे समुचित दंड।
दलन कर वर विवेक के साथ।
पतित पाषण्डी-जन पाषण्ड॥3॥

मानकर उचित बात सर्वत्र।
दानकर सबको वास्तव स्वत्व।
छोड़कर दंभ-द्रोह-दुर्वृत्तिक।
त्याग कर स्वार्थ-निकेत निजत्व॥4॥