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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / पंचदश सर्ग / पृष्ठ - ६

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मुँह खुला जो न सुगंधिकत बन।
किसी से हिले-मिले तो क्या।
रज-भरा जो है मानस में।
फूल की तरह खिले तो क्या॥5॥

लोकरंजन करनेवाली।
चाँदनी जो न छिटक पाई।
किसलिए हृदय हुआ विकसित।
हँसी क्यों होठों पर आयी॥6॥

मलिन हो पड़ा कीच में है।
परम उज्ज्वल पावन सोना।
बन गया जो विलसितामय।
किसी का सउल्लास होना॥7॥

विफल कर जीवन औरों का।
मिलेगी उसे सफलता क्यों।
जो नहीं फूल बरसती है।
कहें उसको प्रफुल्लता क्यों॥8॥

बना अवसन्न दूसरों को।
जो अहितरता अवनता है।
नहीं है जो प्रसन्न करती।
तो कहाँ वह प्रसन्नता है॥9॥

नहीं है जिसमें मधुमयता।
बना जो कटुता-अनुमोदक।
नहीं है जो है प्रमोद देता।
मोद तो कैसे है मोदक॥10॥

किसी उत्फुल्ल सरोरुह-सा।
हृदय को नहीं खिलाता जो।
कहें उसको विनोद कैसे।
विनोदित नहीं बनाता जो॥11॥

कलह को जो अंकुरित बना।
बचाये मुँह जैसे-तैसे।
बीज बो दे विवाद का जो।
कहें आमोद उसे कैसे॥12॥

वह नहीं हँसा सका जिसको।
उसे फिर कौन हँसायेगा।
विषादित बना दूसरों को।
हर्ष क्यों हर्ष कहायेगा॥13॥

सहज हो सुन्दर हो जिसमें।
कलुष का लेश नहीं होता।
वही आनन्द कहाता है।
बहाये जो रस का सोता॥14॥

(11)

मिले कितने ऐसे जिनकी
जीभ कटु कह है रस पाती।
सुने पर-निन्दा कानों में।
है सुधा-बूँद टपक जाती॥1॥

गालियाँ बक-बक कर कितने।
परम पुलकित दिखलाते हैं।
बुराई कर-कर औरों की।
कई फूले न समाते हैं॥2॥

बला में डाल-डाल कितने।
बजाने लगते हैं ताली।
छीन लेते हैं हँस कितने।
पड़ोसी की परसी थाली॥3॥

लूट ले-लेकर अन्यों को।
किसी को मिलती है थाती।
पीस पिसते को बनती है।
किसी की गज-भर की छाती॥4॥

चहकते फिरते हैं कितने।
बने परकीया के प्यारे।
लोप कर अन्य कीत्तिक कितने।
तोड़ते हैं नभ के ता॥5॥

तोड़कर दाँत दूसरों का।
किसी के दाँत निकलते हैं।
उछलने लगते हैं कितने।
जब किसी को वे छलते हैं॥6॥

चोट पहुँचा-पहुँचा कितने।
काम चोरी का करते हैं।
बहुत हैं ह-भ बनते।
जब किसी का कुछ हरते हैं॥7॥

लुभा ललनाओं को कितने।
बहँक बनते हैं छविशाली।
जाल में फाँस युवतियों को।
बचाते हैं मुँह की लाली॥8॥

मोहते रहते हैं कितने।
मोह से हो-हो मतवाले।
छलकते प्यारेले बनते हैं।
छातियों में छाले डाले॥9॥

काम-मोहादि प्रपंचों सें
वासनाओं से हो बाधिकत।
प्रायश: होता रहता है।
मनुज आनन्द महाकलुषित॥10॥