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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / प्रथम सर्ग / पृष्ठ - ३

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कामना

गीत

विधि-विधन हो मधुमय मृदुल मनोहर।
आलोकित हो लोक अधिकतर
हो काल विपुल अनुकूल सकल कलि-मल टले॥1॥

        विमल विचार-विवेक-वलित हो मानस।
        पाये तेज दलित हो तामस।
        मंजुल-तम ज्ञान-प्रदीप हृदय-तल में बले॥2॥

हो सजीवता सर्व जनों में संचित।
क न कोमल प्रकृति प्रवंचित।
भावे भावुकता भूति भाव होवें भले॥3॥

        कर न सके भयभीत किसी को भावी।
        साहस बने सुधारस-स्रावी।
        दिखलावे सबल समोद दुखित दल दुख दले॥4॥

मद-रज से हों मानस-मुकुर न मैले।
बंधु-भाव वसुधा में फैले।
मानवता का कर दलन न दानवता खले॥5॥

        मर्म हृदय का हृदयवान् जन जाने।
        ममता पर ममता पहचाने।
        बन धर्म धुरंधर लोक-कर्म-पथ पर चले॥6॥

जगा जीवनी-ज्योति जातियाँ जागें।
अनुरंजन-रत हो अनुरागें।
भव-हित-पलने में देश-प्रेम प्रिय शिशु पले॥7॥

        विपुल विनोदित बने सुखित हो पावे।
        सुर-वांछित वैभव अपनावे।
        पहुँचे पुनीत तम सुजन देव-पादप-तले॥8॥

द्रवित मोम सम पवि मानस हो जावे।
कूटनीति तृण-राशि जलावे।
होवे हित-पावक प्रखर प्रेम-पंखा झले॥9॥

        छिले न कोई उर न क्षोभ छू जावे।
        शान्ति-छटा छिटकी दिखलावे।
        छल करके कोई छली न क्षिति-तल को छले॥10॥

सब विभेद तज भेद-साधना जाने।
महामंत्र भव-हित को माने।
अभिमत फल पाकर साधक जन फूले-फले॥11॥

शिखरिणी

दिवा-स्वामी होवे रुचिर रुचिकारी दिवस हो।
दिशाएँ दिव्या हों सरस सुखदायी समय हो।
मयंकाभा होवे सित-तम महा मंजु रजनी।
सुधा की धारा से धुल-धुल धरा हो धवलिता॥12॥

        भले भावों से हो भरित भव भावी सबलता।
        स्वभावों को भावें भुवन-भयहारी सदयता।
        सदाचारों द्वारा सफलित बने चित्त-शुचिता।
        सुधारों में होवे सुरसरि-सुधा-सी सरसता॥13॥