भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / षष्ठ सर्ग / पृष्ठ - ५

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

विविध भाँति की बहु विद्याएँ श्रम-संकलित कलाएँ कुल।
हैं उसको गौरवित बनाते कौशल-वलित अनेकों पुल।
सुर-समूह को कीत्तिक-कथाएँ उड़ नभ-यान सुनाते हैं।
विहर-विहर जलयान जलधिक में गौरव-गाथा गाते हैं॥11॥

अफरीका के नाना कानन कौतुक-सदन निराले हैं।
उसने अपनी पशुशाला में बहु विचित्र पशु पाले हैं।
जैसे अद्भुत जीव-जन्तु खग-मृग उसमें दिखलाते हैं।
वैसे कहाँ दूस देशों के विपिनों में पाते हैं॥12॥

शीतल मधुर सलिल से विलसित कल-कल रव करनेवाली।
विपुल मंजु जलयान-वाहिनी बहु मनोहरा मतवाली।
ह-भ रस-सिक्त कूल के कान्त अंक में लहराई।
नील-समान सरसतम सुन्दर सरिता है उसने पाई॥13॥

जिनमें कई सहस्र साल के शव रक्षित दिखलाते हैं।
ज्यों-के-त्यों सउपस्कर जिनको देख दिल दहल जाते हैं।
जिनकी बहु विशाल रचना-विधिक बुधजन समझ न पाते हैं।
परम विचित्र पिरामिड उसके किसे न चकित बनाते हैं॥14॥

क्या हैं ये उत्तांग पिरामिड, कैसे गये बनाये हैं।
गिरि-से प्रस्तर-खंड किस तरह ऊपर गये उठाये हैं।
किस महान कौशल के बल से विरचित उनकी काया है।
क्या यह मायिक मिश्र-नगर के मय-दानव की माया है॥15॥

वह सभ्यता, पिरामिड पर हैं जिसकी छाप लगी पाते।
वह पदार्थ जिससे सहस्र वत्सर तक हैं शव रह जाते।
कब थी? मिला कहाँ पर कैसे? कौन इसे बतलावेगा।
कोई विबुध कभी इस मसले को क्या हल कर पावेगा॥16॥

है एशिया महा महिमामय उसमें भरी महत्ता है।
वन्दनीय वेदों से उसको मिली सात्तिवकी सत्ता है।
महा तिमिर जिस काल सकल अवनी-मंडल में छाया था।
मिले ज्ञान-आलोक तभी वह आलोकित हो पाया था॥17॥

भारत ही ने प्रथम भारती की आरती उतारी है।
उसने ही उर-अंधकार में अवगति-ज्योति पसारी है।
वह है वह सर जिससे निकले सब धर्मों के सोते हैं।
वह है वह जल जिसके बल से सकल पाप मल धोते हैं॥18॥

कहाँ हिमाचल-मलयाचल-से अद्भुत अचल दिखाते हैं।
पतित-पावनी सुर-सरिता-सी सरिता कहीं न पाते हैं।
नयन-रसायन कान्त-कलेवर कुसुमित कुसुमाकर प्यारा।
है कश्मीर अपर सुर-उपवन सुधासिक्त छवि नभ-तारा॥19॥

मानसरोवर के समान सर किसे कहाँ मिल पाया है।
जिसका शतदल अमल कमल जातीय पुष्प कहलाया है।
नीर-क्षीर-सुविवेक-निपुण बहु हंस जहाँ मिल पाते हैं।
मचल-मचल मोती चुगते हैं, चल-चल चित्त चुराते हैं॥20॥

जिसके कनक-विमंडित मठ हैं, जिसमें भूति विलसती है।
रमा जहाँ के लामाओं के वदन विलोक विहँसती है।
जिसके गिरि का हिम-समूह बन हेम बहुत छवि पाता है।
उस तिब्बत के वैभव-सा किसका वैभव दिखलाता है॥21॥

चीन बहुत प्राचीन काल से चिन्तनीय बन पाया है।
उसकी भूतल-भूति भित्तिक का भूरि प्रभाव दिखाया है।
उसका बहु विस्तार बहुलता अवलोके जनसंख्या की।
है विचित्र संसार-मूर्ति की दिखलाती अद्भुत झाँकी॥22॥

है एशिया-खंड का उपवन कुसुमावलि से विलसित है।
राका-राशि से कान्त नृपति की कीत्तिक-कौमुदी से सित है।
रसिक जनों का वृन्दावन है, बुधजन-वृन्द बनारस है।
फारस का भू-भाग गौरवित आर्र्य-वंश का पारस है॥23॥

जिसने अंधकारमय अवनी को आलोकित कर डाला।
जिसने तन का, मन का, जन-जन के नयनों का तम टाला।
जो पच्चीस करोड़ मुसलमानों का भाग्य-विधाता है।
अरब-धारा उस परम पुरुष के पैगम्बर की माता है॥24॥

काकेशस-प्रदेश की सारी सुषमा सुन्दरता न्यारी।
कुस्तुनतुनिया का वैभव वर मसजिद की पच्चीकारी।
टरकी की वीरता-धीरता परिवर्त्तन-गति की बातें।
हैं रंजिनी बनी हैं जिनसे उज्ज्वलतम काली रातें॥25॥

जिसके दिव्य अंक में जनमा वह मरियम का सुत प्यारा।
जिसकी ज्योति लाभ करके जगमगा उठा योरप सारा।
दे-दे ख्याति कीत्तिक-मंदिर में उसकी मूर्ति बिठाती हैं।
फिलस्तीन की बातें उसको महिमामय बतलती हैं॥26॥

देश-प्रदेश प्रायद्वीपों द्वीपों से भरी दिखाती है।
नगर-निकर नाना विभूति-वैभव से बहु छवि पाती है।
खेल-खेल वारिधिक-तरंग से रंग दिखाती बहुधा है।
चित्रिकत विविध चरित्रा-चित्रा से विचित्रतामय वसुधा है॥27॥

शार्दूल-विक्रीडित
(7)

कोई पावन पंथ का पथिक हो या हो महा पातकी।
कोई हो बुध वन्दनीय अथवा हो निन्दनीयाग्रणी।
कोई हो बहु आर्द्रचित्त अथवा संहार की मूर्ति हो।
योग्यायोग्य-विवेक है न रखती, है वीरभोग्या धारा॥1॥

जो देखे इतिहास-ग्रंथ कितने, बातें पुरानी सुनीं।
सा भारत के रहस्य समझे, रासो पढ़े सैकड़ों।
तो पाया कहते सहस्र मुख से संग्राम-मर्मज्ञ को।
वे थे भू-अनुरक्त हाथ जिनके आरक्त थे रक्त से॥2॥

भूलेगा धन से भ भवन को भाये हुए भोग को।
भ्राता को, सुत को, पिता प्रभृति को, भामा-मुखाम्भोज को।
भावों की अनुभूति को, विभव को, भूतेश की भक्ति को।
भू-स्वामी सब भूल जाय उसको, भू भूल पाती नहीं॥3॥