भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पिछले पहर का सन्नाटा था / नासिर काज़मी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पिछले पहर का सन्नाटा था
तारा तारा जाग रहा था

पत्थर की दीवार से लगकर
आईना तुझे देख रहा था

बालों में थी रात की रानी
माथे पर दिन का राजा था

इक रुख़सार पे ज़ुल्फ़ गिरी थी
इक रुख़सार पे चांद खिला था।

ठोढ़ी के जगमग शीशे में
होंटों का साया पड़ता था

चंद्र किरन-सी उंगली-उंगली
नाख़ून-नाख़ून हीरा-सा था

एक पांव में फूल-सी जूती
एक पांव सारा नंगा था

तेरे आगे शमा धरी थी
शमा के आगे इक साया था

तेरे साये की लहरों को
मेरा साया काट रहा था

काले पत्थर की सीढ़ी पर
नरगिस का इक फूल खिला था।