भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पिता की याद / विवेक चतुर्वेदी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

भूखे होने पर भी
रात के खाने में
कितनी बार,
कटोरदान में आखिरी बची
एक रोटी
नहीं खाते थे पिता...
उस आखिरी रोटी को
कनखियों से देखते
और छोड़ देते हममें से
किसी के लिए
उस रोटी की अधूरी भूख
लेकर जिए पिता
वो भूख
अम्मा...तुझ पर
और हम पर कर्ज है।

अम्मा... पिता कभी न लाए
कनफूल तेरे लिए
न फुलगेंदा न गजरा
न कभी तुझे ले गए
मेला मदार
न पढ़ी कभी कोई गजल
पर चुपचाप अम्मा
तेरे जागने से पहले
भर लाते कुएँ से पानी
बुहार देते आँगन
काम में झुंझलाई अम्मा
तू जान भी न पाती
कि तूने नहीं दी
बुहारी आज।

पिता थोड़ी सी लाल मुरुम
रोज लाते
बिछाते घर के आस-पास
बनाते क्यारी
अँकुआते अम्मा...
तेरी पसंद के फूल।

पिता निपट प्रेम जीते रहे
बरसों बरस
पिता को जान ही
हमें मालूम हुआ
कि प्रेम ही है
परम मुक्ति का घोष
और यह अनायास उठता है
मुंडेर पर पीपल की तरह।