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पीरी-पीरी जुनहिआ / शैलेन्द्र चौहान

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सम्भर कहाए भगत!
काए को कहाए
उनने का भगतई करी?
दिन भर तो कत्त मजूरी
और संझा को बैठ जात जाय के
चमरटोला में
जने कहा कत्त हैं
हुंअई से कछु सीखि लओ
झार-फूंक थोरी कछु
अरे ससुरऊ हुंआ झार फूंक सीखत हैं
कै परे रहत समला के उसारे में
बीड़ी पिअत
तकत रहत वा छिनार तारा कों।

वा तारऊ भइया कमाल की औरत है
ऐसी मेहरिआ पूरे इलाका में नायं पइहौ
जाने कित्ते खसम खाए बाने
जू तीसरो है।

कैसी पिअरी देह धरी है जैसे हद्दी लगी होय
जबानी छरकी परि रही ससुरी में
जानि का जादू डारो कै जो देखौ सोई
लपलपाय रहो है।
गांव तौ बिगारई दओ
आसपास के दोचार गांउन मेऊं सोर है
कै तारा बड़ी खबसूरत है
रूप चुभ रहौ बाकै
हिन्नी सी बड़-बड़ी आंखें!
अरे! का बड़ी-बड़ी आंखे
लाज न सरम कछु
आदमी तो पगलाए गए हैं
जाने कित्ते गुलाम बनि गए बाके
अरे गोरी चमड़ी पहलें नायं देखी कभऊं
घर में जो मेहरिआं बैठी है
सो का सबई करिआ और कुलच्छिनी हैं?

अब सम्भरऊ बौराय गए हैं
घर छोड़ि कै दिन भर हुंअई परे रहत हैं

घर में तो नायं दाने
अम्मां चली भुनाने
मेहंत मजूरी करिकै तो चार जनन को
पेट पाल्त है, अब जेउ करम करन लगे
मरिहैं भूखन तब परिहै पता
कैसी बेसरमी की बातें करन लगे हैं
कह रए हते हुआं कुआं की मेड़ पै
‘बौहत बुरो होता है जू इसक
शहन्न में तो लौंडा लौंडिया भीत कन्न लगे हैं
सनीमां देखि देखि कै’
अब गांउन मेंई कसर रह गई हती
सो इनने पूरी कद्दई
अब तो गांउन मेंऊं तोता कैना को किस्सा
हुआ रओ, और वू का कहत है मजनूं को
अरे बिकि जइहै सब लटिआ कमरिआ
तब समझ परिहै।
अभै तों आंखिन में सुरमा डारि कै
परे रहत है समला के खटोला पै
और मोहिनी बिद्या की अजमाइश कर रए हैं
तारा पै!
ताई सै तो भगत गए
अब जई तो बची भगतई!
जब परिहैं जूता तौ सब उतरि जइहै भगतई
जुई बाकी बचो है होन कौ
बिना भए जा लीला उतरिहै नायं उनको
इसक को भूत।

दृश्य: दिन ढरि गयो है
संझा हुई गई है
गाय गोरू सब लौटि आए हैं चरि कै
धीरे-धीरे पीरी-पीरी जुनहिआ
दिखाई देन लगी है आसमान में
अंधेरे में ताल के किनारै
संझा की तान सुनाई दै रही है-
मेरो...तन-डोरे...
मेरो...मन-डोरे
दिल-कौ...गयो...करारि रे...
कौन...बजाए...बांसुरिआ रे...