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पुकार / मनोज कुमार झा

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नहीं, मैं नहीं रोक सकती
मैं जान ही नहीं पाती कि नींद में कब कराहती हूँ और क्यों
जगे में कराहना भी मैंने बड़ी मु‍श्किल से रोका है
लगता है ख़ून में धूल मिल गई है जो नसों की दीवार खुरचती रहती है
नहीं हो पाएगा बंद नींद में कराहना
जगे में कराहना भी रुक नहीं पाता
सच कह ही दूँ, बस किसी तरह छुपा लेता हूँ तुम सब से
जीवन की फाँस में फँसे हो अच्छा है ध्यान नहीं जाता इधर
पाट पर कपड़ा पटकने की आवाज़ छुपा भी लूँ
तो बाहर आ जाती है पानी की गड़गड़
कई पुरखे याद आते हैं
नानी के श्वेत स्वर का पुरानी साड़ी-सा फटना और दागों से भरते जाना
मरने से एक दिन पहले मछरी खाने की अपूर्ण इच्छा माँ की
गिरना कौए के टूटे पंख का पिता की थाली में
असंख्य चितकबरी यादें कराह के उलझे धागों पर रेंगती रहती हैं

मैं नहीं रोक पाऊँगी नींद से उठता यह विषम स्वर
नींद मेरे बस में नहीं
नींद की नाव में जो आता मैं उसकी स्वामिनी
जो बस में था वो भी छूटता जा रहा
मेरी आँख, मेरा गला कुछ भी मेरे बस में नहीं
जब असह्य हो जाए मेरी कराह
तो तुम ही घोंट देना
तो तुम ही सारथि बन जाना इहलोक से परलोक का
तू ही बन जाना इस नींद से उस नींद के बीच का पुल मेरे पुत्र