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पुनर्वास / शंख घोष / मीता दास

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जो कुछ भी मेरे चारों ओर था —
घास, पत्थर,
सरीसृप,
भग्न मन्दिर ।

जो कुछ भी मेरे चारों ओर था —
निर्वासन,
कथोपकथन,
अकेला सूर्यास्त ।

जो कुछ भी मेरे चारों ओर था —
विध्वंस
तीर – बल्लम
घर – द्वार

सब कुछ काँप उठा पश्चिम की ओर
स्मृतियाँ जैसे दीर्घतर दलगत दंगल
टूटा हुआ बक्सा पड़ा था आम वृक्ष की छाया में
एक क़दम की दूरी पर हठात जैसे सब वास्तु हीन से ।

जो कुछ भी मेरे चारों ओर है —
शियालदह,
भरी दुपहरी,
उकेरी दीवारें

जो कुछ भी मेरे चारों ओर है —
अंधी गलियाँ,
स्लोगन (नारे),
मोन्यूमेण्ट (स्मारक)

जो कुछ भी है मेरे चारों तरफ —
शर-शैया,
लैम्पपोस्ट,
लाल गंगा

सब कुछ एक साथ घेर लेते मज्जा का अन्धकार भी
उसी के मध्य बजता रहता जल तरंग
चोटी पर शून्य उठा रखता हावड़ा ब्रिज
पाँव के नीचे लोट जाता परम्परागत ।

जो कुछ भी है मेरे चारों तरफ़ —
झरना,
उड़ते बाल,
नग्न पथ,
बुझती मशालें

जो कुछ भी है मेरे चारों ओर —
स्वच्छ भोर के शब्द,
स्नात शरीर,
श्मशान के शिव,

जो कुछ भी है मेरे चारों ओर —
मृत्यु,
एक के बाद एक दिन,
हज़ारों दिन,
जन्मदिन

सब कुछ घूम कर आता स्मृति के हाथों
थोड़े उजाले में बैठे भिखारी की तरह
जो कुछ भी था और जो है दोनों पत्थरों को ठोंक
जला लेते हैं प्रतिदिन का पुनर्वास ।


मूल बांग्ला से अनुवाद : मीता दास