भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पुनश्च / मनोज कुमार झा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आग थी लहलह
और क़रीब, और क़रीब जाने का मन था
त्वचा मना कर रही थी
दसेक लोग थे - बीड़ी, तमाखू, हँसी, ठहाके और ठहरा हुआ दुःख
बातें चलती रही - नेता, चोर, उल्लू के पट्ठे, सरसों का साग
ग्यारह तक सब अपने अपने घर

राख में अभी भी गर्मी थी
दो कुत्ते आए, एक उसके बाद, एक और - सब पसर गए

सुबह किसी ने ठंडी राख को हटा दिया
शाम में आग फिर लहलहा ।