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पुरवा के झोंके / जगदीश गुप्त

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तेज़ हैं झोंके
हवाओं के
कुछ हुआ ऐसा —
कि सहसा
बज उठे सब तार दर्दीले शिराओं के ।
मस्त अल्हड़ बावले झोंके
झूमती पुरवा हवाओं के ।

बह रही झंझा, झकोरे निर्झरों में झर रहे
उमड़ी प्रभंजन की सहसधारा
हर थपेड़ा तोड़ता-सा जा रहा तन और मन सारा
वर्ष मास दिवस विवश है,
किसी अनजानी दिशा में समय का हर टूक उड़ता जा रहा;
अख़बार के बेकार टुकड़ों की तरह ही उड़ रहे विश्वास
हलका पड़ रहा अस्तित्व
तिनकों की तरह लाचार भटके जा रहे निःश्वास

जीवन मूक उड़ता जा रहा
जाने कहाँ किस ओर
हृदय का हर एक कोना सनसनाहट से रहा भर
और मन की खिड़कियों का हर किवाड़ —
फड़फड़ाता पंख जैसा
किसी हलके क्षीण बादल-सा

कल्पना के शीश पर आँचल नहीं टिकता
मूँद रहे से पलक आँखों में भरी उन्माद की सिकता
दूब-सी झुक कर निगाहें हो रही दुहरी;
खड़खड़ाती पत्तियों-सी वासनाओं के
कँटीले अंग निखरे हैं,
हर इरादा डगमगाया
हर सपन के बाल बिखरे हैं ।
कहीं कोई भी नहीं क्या
तो तनिक इन पागलों के शोर को रोके !
तेज़ हैं झोंके हवाओं के ।
बावली पुरवा हवाओं के ।