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पुल के ऊपर मोर - पंख ले / राजपाल सिंह गुलिया

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पुल के ऊपर मोर-पंख ले,
बैठा एक फकीर।
दवा वहम की देकर ये तो,
हरता सबकी पीर।

गले कई मालाएँ तन पर,
मले हुए है राख।
पुलिस भगाए मगर तनिक भी,
हिले नहीं गुस्ताख।
फ़टी चटाई मैले कपड़े,
दुर्वासा तासीर।

अर्चक के नयनों जब झलके,
दीन हीन अनुरोध।
तंत्र-मंत्र की भूल बढ़ाती,
वैरागी का क्रोध।
देख जगत की आन-बान ये,
होता नहीं अधीर।

मनोकामना बैठ आस में,
करे सुबह की शाम।
संपन्नता गुरबत को यहाँ,
झुक-झुक करे सलाम।
एक नजूमी बन ये कैसे,
मारे तुक्के तीर।