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पृथ्वीक प्रण / शारदा झा

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पृथ्वीक प्रण छैनि
किछु आओर भ' जेबाक
हवा, बसात, पानि, सुरुज, चान किछुओ
मुदा आब नहि रह' चाहैत छथि बनि क'
अपने लोकक ग्रास
नहिं सोहाइत छैनि अपने ह्रास
द'क' अपन सर्वस्व
पाओल मात्र हिंसा आ अवहेलना
सेहो कतेक बर्ख आ दिन?
चाही त आब किछुओ नै
अपन पूर्वसौन्दर्यक बोधो नहि
जँ रहितनी कनिको भान
जे भ' जेतैनि कहियो साँसत मे प्राण
त कहियो अपन आगिक पिंड केँ
सेराय नहि दितथिन
जरिते सुरुज जकाँ विलीन भ' गेनाइ अनन्त मे
होइतनि बेसी आह्लादकारी
समुच्चा संसार!!
आब मात्र करू प्रतीक्षा
कियेकि आब भेल जाइत छैनि
धरित्रीक आँचर दया सँ रहित
चढ़ि रहल छैनि हुनका पित्त
विनाशक सूचना स्वतः ज्वालामुखी बनि
फुटबाक बाट ताकि रहल अछि!