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पेच-दर-पेच सवालात में उलझे हुए हैं / अमीन अशरफ़

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पेच-दर-पेच सवालात में उलझे हुए हैं
हम अजब सूरत-ए-हालात में उलझे हुए हैं

ख़त्म होने का नहीं मारका-ए-इश्‍क़-ओ-हवस
मसअले सारे मफ़ादात में उलझे हुए हैं

किस ख़सारे में नज़र है कि सिमट जाती है
कुछ अभी दाएरा-ए-ज़ात में उलझे हुए है

इन में तो मुझे से ज़ियादा है परेशां-नज़री
आईने शहर-ए-कमालात में उलझे हुए हैं

इस पे दावा भी कि ये कार-ए-मसीहाई है
सारे अज़हान ख़ुराफात में उलझे हुए हैं

कुर्रा-ए-ख़ाक पे पड़ते ही नहीं उन के क़दम
दीदा-वर सैर-ए-तिलिस्मात में उलझे हुए हैं

नूर-ए-मुतलक़ की है तशबीह न तमसील मगर
हम इशारात ओ किनायात में उलझे हुए हैं