भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

प्रजातंत्र में मंत्री / शशि सहगल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मंत्री की कुर्सी
न जाने कैसे आ गई ज़मीन पर
अरे, उसे तो
हथेलियों पर होना चाहिए।
दरवाज़े पर खड़ी भीड़
कब काम आएगी!
जय-जयकार के नारे
वे शब्द
पिछलग्गुओं से
चिपक गए हैं मंत्रीजी के ज़हन में।
खुशी के मारे उनका
रक्तचाप बढ़ गया है।
बोलने वालों की जीभ
सूखकर
चटखने लगी है।
वे बोले-
बाहर निकालो इन्हें अहाते से
दूसरों को आने दो
प्रजातंत्र में
सभी का मुझ पर
बराबर अधिकार है।