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प्रतिशोध का प्रेम / विपिन चौधरी

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चुप्पी के सबसे घने दौर में
अपने नाखूनों का बढ़ना कोई देख सके तो देखे
और जब देख ले तो मान भी ले
देह की प्रकृति के साथ-साथ
भीतर का प्रतिशोध है यह जो नाखूनों के रूप में बाहर टपक आया है
एक आसान बहाने से अपने नैन-नक्श
उकेरता हुआ
ज्वालामुखी, धरती का विरोध दर्ज करते हुए उबल पड़े हैं
सपने, एक पहर में जमी हुई नींद का
काई, समुद्र का
और दूरियां, मंजिलों का प्रतिशोध हैं
कितनों का प्रतिशोध उनके भीतर ही दम तोड़ गया
क्योंकि उनके पास प्रेम का अवकाश नहीं था
थरथराहट की पपड़ियाँ और
समय-असमय का बेमतलब बुखार
मेरे आगे पीछे डोलने लगा
जब मेरे शरीर की धरती से प्रेम ने
अपनी नाजुक जड़ें
दुनिया के मटमैले आसमां की ओर
बाहर निकालनी शुरू कर दी
मैं लालीपॉप सा मीठा जीवन
जी रही थी तो
मेरा प्रतिशोध आखिर किससे था?