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प्रथम बन्दूँ पद विनिर्मल / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

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प्रथम बन्दूँ पद विनिर्मल
परा-पथ पाथेय पुष्कल।

गणित अगणित नूपुरों के,
ध्वनित सुन्दर स्वर सुरों के,
सुरंजन गुंजन पुरों के,
कला निस्तल की समुच्छल।

वासना के विषम शर से
बिंधे को जो छुआ कर से,
शत समुत्सुक उत्स बरसे,
गात गाथा हुई उज्जवल।

खुली अन्तः किरण सुन्दर,
दिखे गृह, वन, सरित, सागर,
हँसे खुलकर हार-बाहर,
अजन जन के बने मंगल।