भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

प्रेम-खंड / मलिक मोहम्मद जायसी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मुखपृष्ठ: पद्मावत / मलिक मोहम्मद जायसी


सुनतहि राजा गा मुरझाई । जानौं लहरि सुरुज कै आई ॥
प्रेम-घाव-दुख जान न कोई । जेहि लागै जानै पै सोई ॥
परा सो पेम-समुद्र अपारा । लहरहिं लहर होइ बिसँभारा ॥
बिरह-भौंर होइ भाँवरि देई । खिनखिन जीउ हिलोरा लेई ॥
खिनहिं उसास बूडि जिउ जाई । खिनहिं उठै निसरै बोराई ॥
खिनहिं पीत, खिनहोइ मुख सेता । खिनहिं चेत, खिन होइ अचेता ॥
कठिन मरन तें प्रेम-बेवस्था । ना जिउ जियै, न दसवँ अवस्था ॥

जनु लेनिहार न लेहिं जिउ, हरहिं तरासहिं ताहिं ।
एतनै बोल आव मुख, करैं तराहि तराहि" ॥1॥

जहँ लगि कुटुँब लोग औ नेगी । राजा राय आए सब बेगी ॥
जावत गुनी गारुडी आए । ओझा, बैद, सयान बोलाए ॥
चरचहिं चेर्टा परिखहिं नारी । नियर नाहिं ओषद तहँ बारी ॥
राजहिं आहि लखन कै करा । सकति-कान मोहा है परा ॥
नहिं सो राम,हनिवँत बडि दूरी । को लेइ आव सजीवन -मूरी ?॥
बिनय करहिं जे गढपती । का जिउ कीन्ह, कौन मति मती ?॥
कहहु सो पीर, काह पुनि खाँगा ?। समुद सुमेरु आव तुम्ह माँगा ॥

धावन तहाँ पठावहु, देहिं लाख दस रोक ।
होइ सो बेलि जेहि बारी, आनहिं सबै बरोक ॥2॥

जब भा चेत उठा बैरागा । बाउर जनौं सोइ उठि जागा ॥
आवत जग बालक जस रोआ । उठा रोइ `हा ज्ञान सो खौआ ' ॥
हौं तो अहा अमरपुर जहाँ । इहाँ मरनपुर आएउँ कहाँ ?॥
केइ उपकार मरन कर कीन्हा । सकति हँकारि जीउ हरि लीन्हा ॥
सोवत रहा जहाँ सुख-साखा । कस न तहाँ सोवत बिधि राखा ?॥
अब जिउ उहाँ, इहाँ तन सूना । कब लगि रहै परान-बिहूना ॥
जौ जिउ घटहि काल के हाथा । घट न नीक पै जीउ -निसाथा ॥

अहुठ हाथ तन-सरवर, हिया कवँल तेहि माँह ।
नैनहिं जानहु नीयरे, कर पहुँचत औगाह ॥3॥

सबन्ह कहामन समुझहु राजा । काल सेंति कै जूझ न छाजा ॥
तासौं जूझ जात जो जीता । जानत कृष्ण तजा गोपीता ॥
औ न नेह काहू सौं कीजै । नाँव मिटै, काहे जिउ दीजै ॥
पहिले सुख नेहहिं जब जोरा । पुनि होइ कठिन निबाहत ओरा ॥
अहुठ हाथ तन जैस सुमेरू । पहुँचि न जाइ परा तस फेरू ॥
ज्ञान-दिस्टि सौं जाइ पहुँचा । पेम अदिस्ट गगन तें ऊँचा ॥
धुव तें ऊँच पेम-धुव ऊआ । सिर देइ पाँव देइ सो छूआ ॥

तुम राजा औ सुखिया, करहु राज-सुख भोग ।
एहि रे पंथ सो पहुँचै सहै जो दुःख बियोग ॥4॥

सुऐ कहा मन बूझहू राजा । करब पिरीत कठिन है काजा ॥
तुम रजा जेईं घर पोई । कवँल न भेंटेउ,भेंटेउ कोई ॥
जानहिं भौंर जौ तेहि पथ लूटे । जीउ दीन्ह औ दिएहु न छूटे ॥
कठिन आहिं सिंघल कर राजू । पाइय नाहिं झूझ कर साजू ॥
ओहि पथ जाइ जो होइ उदासी । जोगी, जती तपा, सन्यासी ॥
भौग किए जौं पावत भोगू । तजि सो भो कोइ करत न जोगू ॥
तुम राजा चाहहु सुख पावा । भोगहि जोग करत नहिं भावा ॥

साधन्ह सिद्धि न पाइय जौ लगि सधै न तप्प ।
सो पै जानै बापुरा करै जो सीस कलप्प ॥5॥

का भा जोग-कथनि के कथे । निकसै घिउ न बिना दधि मथे ॥
जौ लहि आप हेराइ न कोई । तौ लहि हेरत पाव न सोई ॥
पेम -पहार कठिन बिधि गढा । सो पै चढै जो सिर सौं चढा ॥
पंथ सूरि कै उठा अँकूरू । चोर चढै, की चढ मंसूरू ॥
तू राजा का पहिरसि कंथा । तोरे घरहहि माँझ दस पंथा ॥
काम,क्रोध, तिस्ना, मद माया । पाँचौ चोर न छाँडहिं काया ॥
नवौ सेंध तिन्ह कै दिठियारा । घर मूसहिं निसि, की उजियारा ॥

अबहू जागु अजाना, होत आव निसि भोर ।
तब किछु हाथ न लागहिं मूसि जाहिं जब चोर ॥6॥

सुनि सो बात राजा मन जागा । पलक न मार, पेम चित लागा ॥
नैनन्ह ढरहिं मोति औ मूँगा । जस गुर खाइ रहा होइ गूँगा ॥
हिय कै जोति दीप वह सूझा । यह जो दीप अँधियारा बुझा ॥
उलटि दीठी माया सौं रूठो । पटि न फिरी जानि कै झूठी ॥
झझौ पै नाहीं अहथिर दसा । जग उजार का कीजिय बसा ॥
गुरू बिरह-चिनगी जो मेला । जो सुलगाइ लेइ सो चेला ॥
अब करि फनिग भृंग कै करा । भौंर होहुँ जेहि कारन जरा ॥

फूल फूल फिरि पूछौं जौ पहुँचौं ओहि केत ॥
तन नेवछावरि कै मिलौं ज्यों मधुकर जिउ देत ॥7॥

बंधु मीत बहुतै समुझावा । मान न राजा कोउ भुलावा ॥
उपजि पेम-पीर जेहि आई । परबोधत होइ अधिक सो आई ॥
अमृत बात कहत बिष जाना । पेम क बचन मीठ कै माना ॥
जो ओहि विषै मारिकै खाई । पूँछहु तेहि सन पेम-मिठाई ॥
पूँछहु बात भरथरिहि जाई । अमृत-राज तजा विष खाई ॥
औ महेस बड सिद्ध कहावा । उनहूँ विषै कंठ पै लावा ॥
होत आव रवि-किरिन बिकासा। हनुवँत होइ को देइ सुआसा ॥

तुम सब सिद्धि मनावहु हिइ गनेस सिधि लेव ।
चेला को न चलावै तुलै गुरू जेहि भेव ?॥8॥


(1) बिसँभरा = बेसँभाल, बेसुध । दसवँ अवस्था = दशम दशा, मरण । लेनिहार = प्राण लेने वाले । हरहिं = धीरे धीरे । तरासहि =त्रास दिखाते हैं ।

(2) गारुडी = साँप का बिष मंत्र से उतारनेवाला । चरचहि = भाँपते हैं । करा = लीला , दशा । खाँगा =घटा । रोक = रोकड,रुपया । पाठांतर -"थोक"। बरोक = बरच्छा, फलदान ।

(3) विहूना = बिहीन, बिना । घट =शरीर । निसाथा = बिना साथ के । अहुठ = साढे तीन ।

(4) काल सेंति = काल से । धुव = ध्रुव । सिर देइ....छूआ = सिर काटकर उसपर पैर रखकर खडा हो ।

(5) पोई = पकाई हुई । तुम....पोई =अब तक पकी पकाई खाई अर्थात आराम चैन से रहे । पोई = पकाई हुई । साधन्ह =केवल साध या इच्छा ने । कलप्प करै =काट डाले

(6) सूरि = सूली । दिठियार = देखा हुआ । देखा हुआ । भूसि जाहिं = चुरा ले जायँ ।

(7) अहथिर -स्थिर । उजार =उजाड । बसा = बसे हुए । फनिग =फनगा, फतिंगा, पतंग । भृंग = कीडा जिसके विषय में प्रसिद्ध है कि और पतिंगों को अपने रूप का कर लेता है । करा = कला , व्यापार । कैत = ओर, तरफ, अथवा केतकी ।

(8) अमृत = संसार का अच्छा से अच्छा पदार्थ । विषै = विष तथा अध्यात्म पक्ष में विषय । पहले यदि संजीवनी बूटी आ जायगी तो वे बचेंगे तब राम को हनुमान जी ने ही आशा बँधाई थी । तुलै गुरू जेहि मेव = जिस भेद तक गुरु पहुँचता है, जिस तत्त्व का साक्षात्कार गुरु करता है ।