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प्रेम-परख - 1 / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

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प्रेम-धन से पुनीत प्रेम न कर
जो बनी प्रेम-रंकिनी है वह,
तो लगेंगे कलंक क्यों न उसे,
कामिनी-कुल-कलंकिनी है वह।
है अहंभाव प्रेम का बाधाक,
वह नहीं प्रेम-बीज है बोता;
ऊबता प्रेम है बनावट से,
प्रेम है प्रेम के किए होता।
तब कहाँ प्यार-रंग चढ़ पाया,
जब कि है नित्य ही लगा हम-तुम।
है कपट-कीट जो समाया, तो
है किसी काम का न प्रेम-कुसुम।
व्यर्थ फूली रही, मिला फल क्या?
बन किसी आँख की गयी फूली;
आपको जो न भूल पाई, तो
प्रेम कर प्रेमिका बहुत भूली।
प्रेम कर प्रेमदेव-हाथ बिके,
प्रेम-पथ-सूत्र है यही पहला;
जो निबाहे न प्रेम निबाहा तो,
क्यों करे प्रेम प्रेमिका अबला।