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प्रेम-पिआसे नैन / भाग 6 / चेतन दुबे 'अनिल'

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सपनों ने ऐसा छला, मेरे मन का गाँव।
प्रेम-नगर में एक पल, ठहर न पाया पाँव।।

यह कैसा क्षण आगया, मन हो उठा अधीर।
आँखों में आँसू भरे, पोर-पोर में पीर।।

जाने मुझसे क्या हुई, इस जीवन में चूक।
मन थर-थर है काँपता, उठे हृदय में हूक।।

अन्तर में पीड़ा जगी, अधरों पर हैं गीत।
हार-जीत कुछ भी नहीं, कैसी पगली प्रीत।।

प्यास बिकी बाजार में, दो कौड़ी के मोल।
प्रणय-पपीहा उड़ गया, तन का पिंजरा खोल।।

आशा ने पाती लिखी, बैठ कल्पतरु छाँव।
फिर भी पिय लौटा नहीं, अबतक अपने गाँव।।

फूलों-सी मुस्कान को, करिए यों न मलीन।
मुझ जैसे मिल जाएँगे, कौड़ी भर में तीन ।।

मेरे मन की राधिके ! मत कर यों बेचैन।
अन्तर की आशा गई, गया हृदय का चैन।।

सारे सपने हो गए, बेमतलब नीलाम।
बेदर्दी बाजार में, मिली न एक छदाम ।।

तृष्णा , भाषा, भावना, अश्रु, पीर औ ' प्यास।
फिर से दोहराने लगे, पीड़ा का इतिहास।।