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प्रेम करना चाहता हूँ / मृत्युंजय कुमार सिंह

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एक अनघ हृदय
और साफ़ दॄष्टि लिए
मैं मनाना चाहता हूँ
तुम्हारे सौंदर्य का उत्सव
धमनियों में उमड़ते लहू की
खींच कर रास
ताकि उलीच कर
अपनी गाढ़ी तरलता
वो तुम्हें
अपने मोह में न लपेट ले।

घनी बरौनियों की छाया में
पलकों के उत्थान-पतन से
रह-रह विसरित संचार
की भाषा पढ़ना चाहता हूँ
निकटता का वो गणित भी
फिर से सीखना चाहता हूँ।

तुम्हारी त्वचा के अस्तर से
अब भी झांकती है जो चांदनी
कभी मेरे झूठ को
सच की रोशनी से सहलाती
तो कभी जीवन के घूरे पर पड़े
दायित्व के टुकड़े चमकाती,
मैं उसमें नहाना चाहता हूँ।

दुविधा में पड़ा
वक्र दिशाओं में तना हुआ
सपनों के काँपते रोम लिए
मैं जड़ नहीं
मुक्त झूलते
पत्तियों-सा हिलकर
छूना चाहता हूँ, फिर से
तुम्हारे दो आँखों में बसे
जीवंत महाद्वीपों का जगत।

प्रेम में पगा
प्रेम में ही विभक्त
प्रेम से भरा
प्रेम से ही रिक्त
मैं तुमसे प्रेम करना चाहता हूँ।