भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

फारि फारि खाती हैं / भारतेन्दु मिश्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

फारि फारि खाती हैं
द्याँह अब बरइया
सहरन लँग भाजि रही
गाँव गइ चिरइया।

गिद्ध बड़े ब्याढब हैं
रोजु नये करतब हैं
पखनन लौ का न कोउ
है हियाँ हेरइया।

गलियारे-म धूरि-धूरि
बिरवा सब झूरि-झूरि
दाना पानी लौ अब
है नहीं जुरइया।

बित्तउ भरि छाँह नहीं
मदति केरि बाँह नहीं
हरहन कइ जूठनि मा
पेटु हम भरइया।