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फिर इक तारा टूटा, मैंने मांग लिया मन्नत में तुझको / बलजीत सिंह मुन्तज़िर

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फिर इक तारा टूटा, मैंने मांग लिया मन्नत में तुझको ।
इस धरती पर जीते जी ही, पा भी लिया जन्नत में तुझको ।

तू मेरे बारे में जितना मिल कर भी न सोच सका,
उससे ज़्यादा जान चुका हूँ मैं अब तक ख़ल्वत<ref>एकाकीपन</ref> में तुझको ।

साँझ ढले सरगोशी<ref>कानाफ़ूसी</ref> में जब सैयारों<ref>नक्षत्र</ref> से बात करे,
बाँटता है दिलशाद<ref>-fदल को अच्छा लगने वाला</ref> फ़लक़<ref>आसमान</ref> भी ख़्वाब कई रग़बत<ref>स्नेह, लगाव</ref> में तुझको ।

मेरे हाथ की रेखाओं में नाम, निशाँ, चेहरा तेरा हो,
ख़्वाहिश है मेरी ये अज़ल<ref>आfदकाल से</ref> से के देखूँ क़िस्मत में तुझको ।

जान सकेगा तन्हाई की आँच में तप कर कैसा हूँ,
भेज रहा हूं अपनी हालत लिख कर मैं इस ख़त में तुझको ।

कितने दिन फ़ुरक़त<ref>fवयोग</ref> में गुज़रे, और जनम की ठौर नहीं
अब इस जन्म में शक़्ल दिखाऊँ क्या तो मैं ग़ुरबत<ref>ग़रीबी</ref> में तुझको ।।

शब्दार्थ
<references/>