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फिर से / जयप्रकाश मानस

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फिर से

विश्वासघात कर रहा है बादल

फिर से

जलकुकड़ा सूरज जल रहा है

हवा फैल रही है फिर से ज़हर

ज़मीन दोस्ती कर रही है दीमकों के साथ

फिर से

परदेशी फिर से रवाना कर रहे हैं

ख़तरनाक टिड्डों की फौज

स्वदेशी फिर से छुड़ा रहे हैं

डाकू-ढोर-डंगरों को

अगर कुछ नहीं हो रहा है फिर से

तो सिर्फ़

विचारों की लहलहाती फ़सल को

बचा लेने की किसानी कोशिश