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फूल भी कुम्हला रहे हैं / हरिवंश प्रभात

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फूल भी कुम्हला रहे हैं शाख़ में।
रह गया अंगार दबकर राख में।

दिन दहाड़े अपहरण और लूट है,
मजहबी पुस्तक पड़ी है ताख में।

छोड़ती बीबी बहाने कर बहुत,
हैं बहुत दुर्गन्ध उसकी काँख में।

यूँ तो लड़का बेशऊर बेकार है,
फिर भी सौदा शादी का है लाख में।

जनता भी क्या चीज़ नेता जानते,
उसको चाहे दशहरा बैशाख में।

आधुनिक फैशन में बह जाना नहीं,
कुछ तो रख शर्मों हया निज आँख में।

दिख रहा ‘प्रभात’ उसके भाग्य को,
दोष लगता मुठ्ठी के सुराख़ में।