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फैंटेसी / सुनीता जैन

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उसने घर के सारे दरवाजे
खिड़की, रोशनदान
अलमारी के पल्ले और
संदूकों के ढक्कन खोल दिए हैं

बाहर से आई हवा और धूप के साथ
वह भी आगन्तुक-सी अन्दर आई है
देख रही है कि ऐसा क्या था जिसने
पैंतीस वर्ष तक
चादर को बिस्तर पर रखा
पटड़े को रसोईघर में,
कुर्सी को बैठक में रखा?
पर्दों को ब्रैकेट पर
और तस्वीरों को
कीलों पर टाँगे रखा?

वह सोच रही है क्या सच ही
इतने काल यहाँ यह घर था?
या कविताओं-सा ही कुछ
कल्पित, कुछ फैंटेसी था!