भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

फ्लेमिंगो सी उम्मीदें / मुकेश कुमार सिन्हा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गुलाबी फ्लेमिंगो सी उम्मीदें
उनकी रंगीली चमकीली लौ जैसी

जैसे ढेरों गुलाबी पक्षी लम्बी गर्दनें उठा कर
गुलाबी कतारों में चलते हुए
एकाएक इधर उधर फ़ैल जाते हों
विस्तार पाने के लिए, जल परिधि के बीच...

ठीक वैसे ही पल-प्रतिपल
क्या-क्या न कर जाऊँ,
क्या-क्या न पा जाऊँ
कुछ ऐसे ही मेरी उम्मीदें
मेरी सोच की लम्बी गर्दन थामे चाहती है,
पा जाऊँ वो सब कुछ जो चाहता/सोचता रहा अब तक...

मेरी उम्मीदें भी फ्लेमिंगो सी
घंटो एक पैर पर होकर खड़ी
मौन सोचती है, चाहती है
कैसे भी बस
पूरी हो हर चाहत
जैसे फ्लेमिंगो 'टप' से पकडती है निवाला
लम्बे चोच में

गुज़रती जिंदगी और उम्र के साथ सतरंगी उम्मीदें,
किसी भी स्थिति का करने को सामना
चाहती है
फ्लेमिंगो के तरह माइग्रेट करके ही बेशक
कर ले पूरे अरमान
और पा जाए वो हर कुछ
जो संजोये है मन में

फ्लेमिंगो लौट गयी हैं
पुनःप्रवास का समय बीत रहा है
शायद मेरी उम्मीदों ने भी सोना सीख लिया है
या फिर ऐसे कहें
मेरी उम्मीदों को मिल गया महापरिनिर्वाण