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बज उठती वीणा / रामइक़बाल सिंह 'राकेश'

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रह-रह कर बज उठती वीणा अन्तर की,
जा रही सधी सीमा में पंचम स्वर की ।

आवरण पड़ा हट गया ज्ञान-दर्शन पर,
खिंच गई रश्मि-रेखा-सी भीतर-बाहर ।

भर मन-अम्बर रंगों के घन से घुमड़ा,
सागर ही जैसे हृदयराग का उमड़ा ।

उठ रही भैरवी की मरोर अनजानी,
हिय में गहरे घावों की पीर पुरानी ।

बन गई वेदना आँखों में अंजन-सी,
गीतों के गुंजन में नव अभिव्यंजन-सी ।

संगीत उतर आया क्षर में, अक्षर में,
सब एक हो गए स्वर के लहर-भँवर में
                                   
(रचनाकाल -- सितम्बर, 1976)