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बतास में लाश की गन्ध / रुद्र मुहम्मद शहीदुल्लाह / सुलोचना वर्मा

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आज भी मैं पाता हूँ बतास में लाश की गन्ध
आज भी मैं देखता हूँ माटी में मृत्यु का नग्ननृत्य,
बलात्कृता की कातर चीत्कार सुनता हूँ आज भी तन्द्रा के भीतर....
यह देश क्या भूल गया वह दुस्वप्न की रात, वह रक्ताक्त समय ?
बतास में तैरती है लाश की गन्ध
माटी में लगा हुआ है रक्त का दाग।

इस रक्तरँजित माटी के ललाट को छूकर एकदिन जिन लोगों ने बाँधी थी उम्मीद
जीर्ण जीवन के मवाद में वो ढूँढ़ लेते हैं निषिद्ध अन्धकार,
आज वो प्रकाशविहीन पिंजड़े के प्रेम में जगे रहते हैं रात्रि की गुहा में।
मानो जैसे नष्ट जन्म की लज्जा से जड़ कुँवारी जननी
स्वाधीनता — क्या यह जन्म होगा नष्ट ?
यह क्या तब पिताहीन जननी की लज्जा की है फ़सल?

जाति की पताका को आज पँजों में जकड़ लिया है पुराने गिद्ध ने।

बतास में है लाश की गन्ध
निऑन प्रकाश में फिर भी नर्तकी की देह में मचता है मांस का तूफ़ान.
माटी में है रक्त का दाग —
चावल के गोदाम में फिर भी होती है जमा अनाहारी मनुष्य की अस्थियाँ
इन आँखों में नींद नहीं आती। पूरी रात मुझे नींद नहीं आती —
तन्द्रा में मैं सुनता हूँ बलात्कृता की करुण चीत्कार,
नदी में कुम्भी की तरह तैरती रहती है इनसान की सड़ी हुई लाश
मुण्डहीन बालिका का कुत्तों द्वारा खाया हुआ वीभत्स शरीर
तैर उठता है आँखों के भीतर । मैं नहीं सो पाता, मैं नहीं सो पाता....
रक्त के कफ़न में मुड़ा — कुत्ते ने खाया है जिसे, गिद्ध ने खाया है जिसे
वह मेरा भाई है, वह मेरी माँ है, वह हैं मेरे प्रियतम पिता।
स्वाधीनता, वह मेरी स्वजन, खोकर मिली एकमात्र स्वजन —
स्वाधीनता — मेरे प्रिय मनुष्यों के रक्त से ख़रीदी गई अमूल्य फ़सल।
बलात्कृता बहन की साड़ी ही है मेरी रक्ताक्त जाति की पताका।

मूल बांग्ला से सुलोचना वर्मा द्वारा अनूदित