भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बदन कजला गया तो दिल की ताबानी से निकलूंगा / ज़फ़र गोरखपुरी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बदन कजला गया तो दिल की ताबानी से निकलूंगा
मै सूरज बनके इक दिन अपनी पेशानी से निकलूंगा

मुझे आंखों में तुम जां के सफ़र की मत इजाज़त दो
अगर उतरा लहू में फिर न आसानी से निकलूंगा

नज़र आ जाऊंगा मैं आंसुओं में जब भी रोओगे
मुझे मिट्टी किया तुमने तो मैं पानी से निकलूंगा

मैं ऐसा ख़ूबसूरत रंग हूँ दीवार का अपनी
अगर निकला तो घरवालों की नादानी से निकलूंगा

ज़मीरे-वक़्त में पैवस्त हूं मैं फांस की सूरत
ज़माना क्या समझता है कि आसानी से निकालूंगा

यही इक शै है जो तनहा कभी होने नहीं देती
ज़फ़र मर जाऊंगा जिस दिन परेशानी से निकलूंगा