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बदरी बूंद-बूंद उस रोज / मृदुला सिंह

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चांदी हुए केश तुम्हारे
किसी शांति सभा की श्वेत पताकाओं से
अन्यायी बातों के प्रतिरोध में
अकेले ही अड़ना तुम्हारा
जैसे गोदान की धनिया

तुम्हारे श्यामल तन पर
झुर्रिया नहीं हमारी तकलीफें थी
जिन्हें तुम सोख लेती थीं
दीये की बाती सी
तुम अपनी नींद कहाँ सोती थीं
भोर से ही उठ कर लीप देती अंगनाई
बिखेरती दाने पखेरूओं के लिए
तुम्हारे बूते के कलरव से ही
जागता था सारा गांव

एक दिन तुम नहीं उठी
उठी ही नही
इतनी गहरी निद्रा?
तुम्हारे निर्दोष खरे मुख पर
अशांति पसरी थी अधखुली पलके
शून्य में कुछ तलासती
तुम्हे जगाते हमारे भाई बहनों के ऊंचे स्वर
कातरता में बदलने लगे थे

लोगों ने कहा तुम अब नहीं जागोगी
मर गई हो, मरना इतना सहज होता है क्या?
तुम नहीं जा सकती थीं
उस पार की यात्रा पर क्योंकि
बताओ तो
कभी गई हो कहीं हमे छोड़ कर?

ताक पर रखे तुम्हारे सारे भगवान हंस रहे थे
रिरियाती रही उनके सामने
पटकती रही सर
इस आस में कि एक बार
खोल दो आंखे, कुछ बोल दो
लेकिन...
न तुम्हारे भगवान ने सुना
न तुम कुछ बोली

तुम्हारी अंतिम यात्रा में शामिल थे सब
पूरा बाग, चिरई चिरगुन और पूरा गांव
सूरज भी निस्तेज उदास
चल रहा था धीरे-धीरे साथ
लेकिन कुछ मुस्कुरा रहे थे
पर शोक यात्रा में कैसी खुशी?
इन्ही के लिए तुम विरासत कर गई थी न
सैकड़ो बीघा जमीन?

मुझे भी जाना था अंतिम यात्रा में
पर भीड़ ने रोक लिया
नहीं लड़कियाँ नहीं जाती श्मशान
तुम्हे पता है, चुपके से गई थी मैं
मेड़ के पीछे से देखा था तुम्हें
धुंयें, आग फिर राख में बदलते
भरे मन वजनी पांवों से लौटी थी घर
और अकस्मात ही बरस गई थी
बदरी बूंद-बूंद उस रोज

सब ने कहा यह तुम थी
रो रही थी
या चुनने आई थी हमारा दुख
ओह मेरी दादी।