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बन्धु, उतारो छद्म मुखौटा / योगेन्द्र दत्त शर्मा

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ऐसा क्या हो गया अचानक
जाग गई कैसे नैतिकता !
बन्धु, आप तो रहे अलौकिक
पाई कैसे यह लौकिकता !

बनने चले तपस्वी, त्यागी
यह क्या कोई नया खेल है
बन्धु, आपकी मूल प्रकृति से
यह नाटक खाता न मेल है
आप हंस की चाल चल रहे
भूले अपनी स्वाभाविकता !

भला आपका रिश्ता क्या है
नीर-क्षीर वाले विवेक से
रहा आपको मतलब केवल
अपने ही राज्याभिषेक से
ऐसे में नैतिक विरोध की
समझ न आई प्रासंगिकता !

जुगत-जुगाड़ों, जोड़-तोड़ में
आप कुशल थे, पारँगत थे
मक्खन और मलाई चट कर
उसे हजम करने में रत थे
वैयक्तिकता छोड़, अचानक
कैसे सूझी सामाजिकता !

बने पक्षधर और हितैषी
सहसा जिनके खड़े साथ हैं
उनके ही निर्दोष लहू से
स्वयं आपके रँगे हाथ हैं
क्या यह कोई नया पैंतरा
या बदली है वैचारिकता !

नौ सौ चूहे खाकर जैसे
धूर्त बिलैया हज को जाती
कुछ वैसे ही आप जोश में
फुला रहे हैं अपनी छाती
अजब कला है रँग-बदल की
कैसी गजब व्यावहारिकता !

जो है बिकता, वह कब टिकता
भौतिक सुख की यही क्षणिकता
सत्य सनातन है मौलिकता
शेष अन्यथा सब कुछ सिकता
छल-प्रपँच तो अस्थायी है
टिकती केवल प्रामाणिकता !

बन्धु, उतारो छद्म मुखौटा
अपनाओ कुछ नैसर्गिकता !