भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बरसा पानी / प्रभुदयाल श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बरसा पानी छमा-छम,
कड़की बिजली ढमा-ढम।
कमरे में बौछार घुसी,
आंगन में बह गई नदी।
बादल हैं काले पीले,
कपडे सभी हुए गीले।
पानी में मैं घूमा ख़ूब।
मैं तो ढूँढ रहा था धूप।
धूप मुझे न मिल पाई।
सर्दी सि र पर चढ़ आई।
मम्मी ने जब विक्स मला
तब मैं चंगा हुआ भला