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बरसे महाराज झड़ाझड़ियाँ / हरगोविन्द सिंह

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बरसे महाराज झड़ाझड़ियाँ, सो धरती जै-जैकार करै।
पानी कौ पहलौ गिरो, मुतियन की लर झिलमिला उठी,
कुछ सौंधी-सौंधी महँक जगी, सोई माटी कुलबिला उठी;
बह चलीं उरतियाँ गलिन-गलिन, लरकन की गोलें जुरयाईं,
कलकत उघरारे निकर परे, वे खेल चले चाई-माई;
सबनें जी-ऐसौ पाओ है, या अमरित की रसधार झरै।

भर गुच्छन जमना फूट कढ़ी गौहान हार गोरी-नारी,
जैसे धरती खें उढ़ा गओ, कोउ पीरुइया प्यारी-प्यारी;
सूकी कँदिया सकत्यान लगी, बिरछन पै आई नई उल्हन,
जुड़रक में उतर खैजुअन सें चिनगुनी-चिरइयाँ लगीं चुनन;
नाचत करहायँ, मितकरे मगन, भारई अलग झनकार भरै।

निँग चलीं गिँजाई गैल धरें, ई पखनी-पखना मौज करें,
लजबन्ती बीरबहूटिन सें हरयारी सेंदुर माँग भरें।
फिर रहे कैंचुवा, पौहन के गुलगुले गिलाए में सरकत,
कुछ ऐसउ कीरा बिचर परे, जिनखें दिखतइँ छाती धरकत,
मालिक कौ भारी कटखानों, अनगिन्ते जीव निकार घरै।

हिलुरो जल कंडी-उतरावन, जब गिरो कलफया भदर-भदर,
नद्दी-नारे गड़गड़ा उठे, पा धुआँधार की झिमर-झिमर;
अब आसा-तिसना दौर परी, छा गई जीउका जलाबम्म,
करमार जुड़ाने बैठे हैं, करतूती कूदे घमाघम्म,

कोउ ब्यामा छाँटै बौंड़-बौंड़, कोउ पूँछ पकर जग पार करै।
बरसे महाराज झड़ाझड़ियाँ, सो धरती जै-जैकार करै।।