भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बवंडर उठ रहा है क्या तुम्हें इसकी ख़बर भी है / डी. एम. मिश्र
Kavita Kosh से
बवंडर उठ रहा है क्या तुम्हें इसकी ख़बर भी है ?
तबाही से डरे हैं लोग घबराहट इधर भी है
मेरी मंज़िल मुझे आवाज़ देती है चले आओ
उधर है डूबता सूरज इधर धुँधली नज़र भी है
समझने बूझने में साल कितने ही गँवा डाले ?
समय है कम हमें मालूम है लंबा सफ़र भी है
ज़रा हिम्मत तो देखो अब सहारा वो मुझे देगा
अभी कमसिन बहुत उसकी बड़ी पतली कमर भी है
वहाँ खेती नहीं करता कोई खाता मगर अच्छा
हमारे गाँव से कुछ दूर पर ऐसा नगर भी है
बड़ी मीठी जुबाँ वाला मुझे इन्साँ मिला कोई
मगर जब दिल खँगाला उसका तो निकला ज़हर भी है