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बसन्त-1 / नज़ीर अकबराबादी

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मिलकर सनम<ref>प्रिय पात्र</ref> से अपने हंगाम<ref>कोलाहल</ref> दिल कुशाई<ref>दिल को आनन्द देने वाला</ref>।
हंसकर कहा यह हमने ऐ जां! बसंत आई।
सुनते ही उस परी ने गुल गुल<ref>फूलों से</ref> शगुफ़्ता<ref>प्रसन्न, फूलों से सजकर</ref> होकर।
पोशाक ज़र फ़िशानी<ref>सोना बिखेरने वाली सुनहरी किरणें</ref> अपनी वोंही रंगाई।
जब रंग के आई उसकी पोशाक पुर नज़ाकत<ref>नज़ाकत से भरी हुई</ref>।
सरसों की शाख़<ref>टहनी</ref> पुर गुल<ref>फूलों से लदी हुई</ref> फिर जल्द एक मंगाई।
एक पंखुड़ी उठाकर नाजुक सी उंगलियों में।
रंगत फिर उसकी अपनी पोशाक से मिलाई।
जिस दम किया मुक़ाबिल<ref>सामने</ref> कसवत से अपने उसको।
देखा तो उसकी रंगत उस पर हुई सवाई।
फिर तो बसद<ref>सैकड़ों</ref> मुसर्रत<ref>खुशी</ref> और सौ नज़ाकतों<ref>कोमल</ref> से।
नाजुक बदन पर अपने पोशाक वह खपाई।
चम्पे का इत्र मलकर मोती से फिर खुशी हो।
सीमी<ref>चांदी जैसी</ref> कलाइयों में डाले कड़े तिलाई<ref>सुनहरे रंग के</ref>।
बन ठन के इस तरह से फिर राह ली चमन की।
देखी बहार गुलशन बहरे तरब<ref>आनन्द</ref> फ़िज़ाई<ref>बढ़ाने वाली</ref>।
जिस जिस रविश<ref>चाल, पद्धति</ref> के ऊपर जाकर हुआ नुमाया<ref>प्रकट</ref>।
किस किस रविश से अपनी आनो अदा<ref>हाव-भाव</ref> दिखाई।
क्या क्या बयां हो जैसे चमकी चमन-चमन में।
वह ज़र्द पोशी उसकी, वह तर्जे़ दिलरुबाई<ref>हाव-भाव</ref>।
सदबर्ग<ref>सौ पत्तियों वाला गेंदा</ref> ने सिफ़त<ref>प्रशंसा</ref> की नरगिस ने बेतअम्मुल<ref>निःसंकोच, बेखटके</ref>।
लिखने को वस्फ़<ref>गुण</ref> उसका अपनी क़लम उठाई।
फिर सहन में चमन के आया बहुस्नो<ref>सुन्दरता के साथ</ref> खू़बी।
और तरफ़ा तर<ref>तत्कालीन</ref> बसंती एक अन्जुमन<ref>महफिल</ref> बनाई।
उस अन्जुमन में बैठा जब नाज़ो<ref>हाव-भाव</ref> तमकनत<ref>अभिमान, गर्व, घमंड</ref> से।
गुलदस्ता<ref>फूलों का गुच्छा</ref> उसके आगे हंस-हंस बसंत लाई।
की मुतरिबो<ref>गायक, रागी</ref> ने खु़श खु़श आग़ाजे़<ref>प्रारम्भ</ref> नग़मा साज़ी<ref>सुरीला गान</ref>।
साक़ी<ref>शराब पिलाने वाला</ref> ने जामे ज़र्री<ref>सुनहरा मदिरा पात्र</ref> भर भर के मै<ref>शराब</ref> पिलाई।
देख उसको और महफ़िल उसकी ”नज़ीर“ हरदम।
क्या-क्या बसंत आकर उस वक़्त जगमगाई॥

शब्दार्थ
<references/>