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बसन्त-6 / नज़ीर अकबराबादी

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जहां में फिर हुई ऐ! यारो आश्कार बसंत।
हुई बहार के तौसन पै अब सवार बसंत॥
निकाल आइ खिजाओं को चमन से पार बसंत।
मची है ज़ोर हर यक जा वो हर कनार बसंत॥
अजब बहार से आई है अबकी बार बसंत॥1॥

जहां में आई बहार और खिज़ा के दिन भूले।
चमन में गुल खिले और वन में राय वन फूले॥
गुलों ने डालियों के डाले बाग़ में झूले।
समाते फूल नहीं पैरहन में अब फूले॥
दिखा रही है अजब तरह की बहार बसंत॥2॥

दरख्त झाड़ हर इक पात झाड़ लहराए।
गुलों के सर पै पर बुलबुलों के मंडराए॥
चमन हरे हुए बाग़ों में आम भी आए।
शगूफे खिल गए भौंरे भी गूंजने आए॥
यह कुछ बहार के लाई है वर्गो बार बसंत॥3॥

कहीं तो केसर असली में कपड़े रंगते हैं।
तुन और कुसूम की ज़र्दी में कपड़े रंगते हैं॥
कहीं सिंगार की डंडी में कपड़े रंगते हैं।
गरीब दमड़ी की हल्दी में कपडे़ रंगते हैं॥
गर्ज़ हरेक का बनाती है अब सिंगार बसंत॥4॥

कहीं दुकान सुनहरी लगा के बैठे हैं।
बसंती जोड़े पहन और पहना के बैठे हैं॥
गरीब खेत में सरसों के जाके बैठे हैं।
चमन में बाग में मजलिस बनाके बैठे हैं॥
पुकारते हैं अहा! हा! री ज़र निगार बसंत॥5॥

कहीं बसंत गवा हुरकियों से सुनते हैं।
मज़ीरा तबला व सारंगियों से सुनते हैं॥
कहीं खाबी व मुंहचंगियों से सुनते हैं।
गरीब ठिल्लियों और तालियों से सुनते हैं॥
बंधा रही है समद का हर एक तार बसंत॥6॥

जो गुलबदन हैं अजब सज के हंसते फिरते हैं।
बसंती जोड़े में क्या-क्या चहकते फिरते हैं॥
सरों पै तुर्रे सुनहरे झमकते फिरते हैं।
गरीब फूल ही गेंदे के रखते फिरते हैं॥
हुई है सबके गले की गरज़ कि हार बसंत॥7॥

तवायफ़ों में है अब यह बसंत का आदर।
कि हर तरफ को बना गडु़ए रख के हाथों पर॥
गेहूं की बालियाँ और सरसों की डालियाँ लेकर।
फिरें उम्दों के कूंचे व कूंचे घर-घर॥
रखे हैं आगे सबों के बना संवार बसंत॥8॥

मियां बसंत के यां तक तो रंग गहरे हैं।
कि जिससे कूंचे औ बाजार सब सुनहरे हैं॥
जो लड़के नाज़नी और तन के कुछ इकहरे हैं।
वह इस मजे़ के बसंती लिबास पहरे हैं॥
कि जिन पै होती है जी जान से निसार बसंत॥9॥

बहा है ज़ोर जहां में बसंत का दरिया।
किसी का ज़र्द है जोड़ा किसी का केसरिया॥
जिधर को देखो उधर ज़र्द पोश का रेला।
बने हैं कूच ओ बाज़ार खेत सरसों का॥
बिखर रही है ग़रज़ आके बे शुमार बसंत॥10॥

”नज़ीर“ खल्क में यह रुत जो आन फिरती है।
सुनहरे करती महल और दुकान फिरती है॥
दिखाती हुस्न सुनहरी की शान फिरती है।
गोया वही हुई सोने की कान फिरती है॥
सबों को ऐश की रहती है यादगार बसंत॥11॥

शब्दार्थ
<references/>