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बहता समय / पृथ्वी: एक प्रेम-कविता / वीरेंद्र गोयल

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कुछ भी शाश्वत नहीं
बस तुम बसंत
मैं पतझड़
शर्म से
अपनी नग्नता
छिपा भी तो नहीं पाता
वरना तुम भी कैसे
डाल-डाल सहलाओगी
ओ बसंत
तुम कैसे
मेरे जीवन को छू पाओगी?
अपने-आपको
कुठाली शुद्धि के लिए
भट्ठी गलाने के लिए
बहुत महीन ही
तैर पाता है
अथाह सागर में
जानो खुद को
मुझसे आर-पार होकर
खुद से करो वादा
खुद से मिलने आओ
छूटोगे तुम ही
कोई और नहीं
ये जरूरत है
तुम्हारी खुद की
चलना है तुम्हें
रोशनियाँ तो
मार्गदर्शन कर सकती हैं
मंजिल नहीं बन सकतीं।