भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बहार / नज़ीर अकबराबादी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गुलशने-आलम<ref>दुनिया के बाग में</ref> में जब तशरीफ़ लाती है बहार।
रंगो बू के हुस्न क्या क्या कुछ दिखाती है बहार॥
सुबह को लाकर नसीमे<ref>शीतल मंद समीर</ref> दिल कुशा<ref>दिल को खुश करने वाली</ref> हर शाख़ पर।
ताजा तर किस किस तरह के गुल खिलाती है बहार॥
नौनिहालों<ref>नौ उम्र</ref> को दिखा कर दमबदम नशवो नुमा।
जिस्म में रूहो<ref>जान</ref> रवाँ क्या क्या बढ़ाती है बहार॥
बुलबुलें चहकारती हैं शाखे़ गुल पर जाा बजा<ref>जगह-जगह</ref>।
बुलबुलें क्या फ़िलहक़ीकत चहचहाती है बहार॥
होजों, फ़व्वारों को देकर आबरू फिर लुत्फ़ से।
क्या मुतर्रा फ़र्श सब्जे को बिछाती है बहार॥
जुम्बिशे<ref>कंपन</ref> बादे सबा<ref>सबेरे की शीतल वायु</ref> से होके हमदोशे<ref>बराबर-बराबर, मिल-जुलकर</ref> निशात<ref>खुश</ref>।
साथ हर सब्जे के क्या-क्या लहलहाती है बहार॥
ख़ल्क़ को हर लहज़ा अपने हुस्न की रंगत दिखा।
बे तकल्लुफ़ क्या ही हर दिल में समाती है बहार॥
मजमऐ<ref>भीड़</ref> खू़बां<ref>सुन्दर स्त्रियां</ref> हुजूम<ref>भीड़</ref> आशिक़ां और जोशे गुल।
देख इन रंगों को क्या क्या खिलखिलाती है बहार॥
गुल रुख़ों<ref>फूल जैसे सुन्दर</ref> की देख कर गुल बाज़ियां हर दम ”नज़ीर“।
गुल उधर ख़न्दां<ref>खिले हुए</ref>, इधर धूमें मचाती है बहार॥

शब्दार्थ
<references/>