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बारहमासा / सुधा गुप्ता

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चैत्र
चैत्र जो आया
मटकी भर नशा
महुआ लाया ।

धरा ने किया
वासन्ती -सा शृंगार
सरसों फूली ।

फूलों की टोपी
हरियाली का कुर्त्ता
दूल्हा वसन्त ।

वैशाख
धूप से डर
पीली छतरी खोले
खड़ा वैशाख ।

फूल जो खिले
मियाँ वैशाख जले
कोई क्यों हँसे ?

आया है द्वार
धूल -भरी झोली ले
जोगी वैशाख।

ज्येष्ठ
जेठ की आँच
हवाएँ खौलती हैं
औटते जीव ।

आग की गुफ़ा
भटक गई हवा
जली निकली।

अंगारे बिछा
धरती चले सोने
लपटें ओढ़ ।

आषाढ़
बजे नगाड़े
राजा ‘इन्दर’ आए
ले के बारात ।

अड़े खड़े हैं
सुरमई हाथी ये
सूँड उठाए ।

बाल बिखेरे
पर्वत के कन्धे पे
मचली घटा ।

श्रावण
तीज मनाती
हरियर धरती
सुहाग-भरी।

सावनी घटा
बुँदियों की ओढ़नी
धानी-सी छटा ।

खिड़की पर
काँप रही गौरैया
 पानी से तर।

भाद्रपद
भादों के मेघ
बिजली के फूलों की
माला पहने ।
प्रकृति क्रुद्ध
सटकारती कोड़ा
बिजलियों का।

लड़ीं-झगड़ीं
झमाझम रो रही
हैं बदलियाँ ।

आश्विन
बदली हवा
शरारत क्वार की ।
चढ़ता नशा ।

नीली चादर
धुनी रुई के गाले
छितर गए ।

उतार फेंकी
बादल की पोशाक
क्वार-नभ ने ।

कार्तिक
कार्तिक अमाँ
अभिसार को चली
दीपाली- निशा ।

धरती ने ली
शीत से फुरहरी
माँगा दोशाला ।

झील -दर्पण
सिंगार कर , झाँकी
शरद -लक्ष्मी ।


अगहन
फिरे अकेली
अगहन की रात
पता पूछती ।

धूप-जल में
आँखें मूँद नहाते
ठिठुरे पंछी ।

दस्तक न दे
भड़भड़ाती घुसे
काँपती हवा ।

पौष
रोती रहती
बिन माँ की बच्ची-सी
पूस की धूप ।

खेतों दौड़ती
पगली कटख्न्नी
पूस की हवा ।

पौष की भोर
हरे शनील पर
बिखरे मोती ।

माघ
माघ बेचारा
कोहरे की गठरी
उठाए फिरे ।

डालता चौक
आँसू भीगी पातियाँ
माघ डाकिया ।


राजा तुषार
उजाड़े घर-द्वार
पेड़-पौधों के ।

फाल्गुन
लाल गुलाल
पूरी देह पे लगा
हँसे पलाश

जोगिया टेसू
धारे युवा वैष्णवी
वन में खड़ी ।

फागुन मस्त
ढिंढोरची वसन्त
सड़कों पर ।
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