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बालक / शिवकुटी लाल वर्मा

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वह एकान्त
बर्फ़ की ताबीज औ’ गण्डे लपेटे
बुद्धू-सा खड़ा था चुपचाप मैं

एक बादल कहीं से आया
बिना किसी बात मुझसे टकरा गया,
और स्वयं ही फूट-फूट रोने लगा
हवा मुझे चपत मार कर भाग गयी
मैं कुछ नहीं बोला
खीझा, घबराया सा खड़ा रहा

सहसा ध्यान गया
मैं नंगा था -–
लजाया सा इधर-उधर देखा
बादल भी गायब था
लगा, कहीं वह किसी से कुछ कह न दे

पर जब समूर की खाल ओढ़े
सतरंगी घड़ी लिए सूर्य निकट आया
मैंने नीचे पड़ी
वह फूलदार घाटी पहन ली थी