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बावजूद चुप / राजेन्द्र प्रसाद सिंह

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इतनी आवाज़ों के
बाबजूद कैसे
पूरा आसमाँ चुप है।

गीत उमगे जहाँ,
वे रास्ते खोये;
थी कहाँ मंजिल कि जिसके वास्ते खोये!
रात आधी –बर्राती,
भोर भी खट-पट लाती,
दनदना रही दुपहरी,
तमक तड़की घर्राती,
शाम की हँसी खनकती,
रात सुख-दुःख को गाती!
अजब साज-बाजों के
बाबजूद वैसे
पूरा कारवाँ चुप है!

प्रीति उपजी जहाँ,
वे क्यारियां खाली;
बीज उन्नत का ठेका ले रहे माली!

बहसें हर ठौर ज़ारी,
सब पर धमाके भारी,
जाती ‘सुनहरे कल’ तक
लौटरीवाली गाड़ी
झूठ नारों के सदके!
लूट-मारों के सदके!

गज़ब,, हर प्रसारण के
बावजूद जैसे-
पूरा आशियाँ चुप है!