भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बाशिंदे हक़ीक़त में हैं हम मुल्क-ए-बक़ा के / मरदान अली ख़ान 'राना'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बाशिंदे हक़ीक़त में हैं हम मुल्क-ए-बक़ा[1] के
कुछ रोज़ से मेहमान हैं इस दार-ए-फ़ना[2] के

दिल खूँ[3] हो शब-ए-वस्ल भी हसरत में न क्यूँकर[4]
देखें न वो ख़ल्वत[5] में भी जब आँख उठा के

फ़रमाइए हमसे थी यही शर्त-ए-मुहब्बत
ख़ूब आपने रुस्वा[6] किया ग़ैरों में बुला के

'कूचे में न आए कोई' मैं जान गया हूँ
फ़रमाते हो मुझसे ये रक़ीबों[7] को सुना के

दिल हाथ से खो जाता है किस तौर से ज़ाहिद[8]
तू आप[9] ज़रा देख ले उस कूचे में जा के

ख़ाक-ए-दर-ए-जानाँ[10] है लिबास-ए-तन-ए-उर्यां[11]
आशिक़ तेरे मोहताज नहीं और क़बा[12] के

हम सर के बल आएँगे जो बुलवाओगे साहब
गर हो न यक़ीं देख लो तुम चाहो बुला के

हो साया-ए-दीवार तुम्हारा जो मयस्सर[13]
फिर क्या करें फ़रमाइए साए को हुमा[14] के

दिल खोल के कर लीजिए ऐ हज़रत-ए-दिल सैर
हम फिर के न फिर आएँगे इस बज़्म[15] से जा के

तन ख़ाक में मिल जाएगा एक रोज़ हमारा
जी तन से निकल जाएगा मानिंद हवा के

(1. हमेशा रहने वाला मुल्क; 2. मिटने जाने वाला घर; 3. ख़ून; 4. कैसे; 5. तन्हाई; 6. बदनाम; 7. विरोधी/मुख़ालिफ़ लोग; 8. परहेज़गार/बुराइयों से बचने वाला शख्स; 9. ख़ुद; 10. प्रियतमा की चौखट की धूल; 11. तन के लिए लिबास; 12. वस्त्र; 13. उपलब्ध; 14. एक शुभ काल्पनिक पक्षी; 15. महफ़िल)

शब्दार्थ
<references/>