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बिदा बीते साल / संतोष श्रीवास्तव

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जा रहे हो?
रोकूँ भी कैसे?
दस्तूर नहीं है।
पर जाते-जाते मेरा गिरवी रखा
सामान तो लौटा दो

वो खुशियाँ
जो तुम्हारे आने के दिन
मुझे दुआएँ बन मिली थीं
भ्रम ही रही पूरे साल

वो लम्हे ...जो मैंने
खुद को स्थापित करने में
ज़ाया किए
लगातार जद्दोजहद से गुज़रती रही
जड़ से उखड़ी ज़िदगी

वो चैन-ओ-करार
जिस पर
बदस्तूर जारी रहा अकेलापन
भिगो भिगो जाता सन्नाटा

वो नींदें
जो आंखों तक आकर छिटक गई
और खड़ी रहीँ
सुबह के इंतजार में

कितनी थकी-थकी
बेज़ार-सी है तुम्हारी
जाती हुई पदचाप

जानती हूँ नहीं लौटा पाओगे तुम
गिरवी रखा मेरा सामान
चलो मैंने भी तुम्हें बख्श दिया
ब्याज की एवज़